विष्णु का प्रथम अवतार परात्पर है। ब्रह्म है, माया है। यही तो अद्र्धनारीश्वर है। आधा भाग ब्रह्म, आधा माया। ब्रह्म बीज भाव और माया कामना रूप सृष्टि करती है। मैं ही मेरी कामना। मैं ही मेरी सृष्टि। ऋताग्नि में ऋत सोम की आहुति से ऋतुएं बनीं। संवत्सर प्रजापति बना। सत्याग्नि बना। सोम सदा ऋत होता है। अत: सत्य को केन्द्र में रखकर परिधि रूप- अव्यय पुरुष बन जाता है।
प्रकृति पूजा मूल में हृदय-देवता की पूजा है। हृदय स्थित ब्रह्मा ही ब्रह्म का प्रतिरूप है। अव्यय की प्रतिष्ठा है। स्थूल सृष्टि के साथ अव्यय का सूत्र प्रकृति बनाती है। हृदय परा प्रकृति है। सूर्य के नीचे अपरा प्रकृति है। तीनों लोक ही विष्णु-महालक्ष्मी का क्षेत्र हैं। परमेष्ठी में भृगु-अंगिरा-अत्रि प्राण उत्पन्न करती है महालक्ष्मी। ये ही क्रमश: परा प्रकृति के महालक्ष्मी-महासरस्वती-महाकाली रूप आग्नेय प्राण (वेदत्रयी) हैं। इसी प्रकार पार्थिव चन्द्रमा से अपरा सत्व-रज-तम रूप प्रकृति उत्पन्न होकर आत्मा से जुड़ती है। विष्णु-महालक्ष्मी अथर्व रूप अर्थ सृष्टि (सोमरूप) के संचालक बनते हैं। रोदसी, क्रन्दसी और संयति तीनों त्रिलोकियों की अपनी-अपनी प्रकृतियां हैं। आगे प्रत्येक प्राणी की अपनी प्रकृति हेाती है। वैसा ही सोम हृदय ग्रहण करता है। सृष्टि वैसा ही स्वरूप ग्रहण करती है।
जीवन में काल और परिस्थितियां बदलती रहती हैं। स्वरूप भी उसी अनुरूप बदल जाते हैं। चूंकि पत्नी के प्राण पति के हृदय में ही रहते हैं जो उसकी भावना के साथ प्रभाव छोड़ते रहते हैं। पुरुष और प्रकृति एक ही देह में जीवन संचालन करते हैं। पुरुष के पास कामना है, प्रकृति कर्म करती है। अव्यय पुरुष के पास माया (महालक्ष्मी रूप) तथा अक्षर पुरुष के साथ हृदय में तीनों देवियां प्रतिष्ठित हैं। अपने-अपने पति की अद्र्धांगिनी रूप में कार्य करती हैं। आत्मा के निर्माण के साथ ही चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब रूप प्रकृति साथ हो जाती है। ब्रह्मा-विष्णु-महेश ही हृदय रूप में प्रतिष्ठित रहते हैं।
श्रीमद्भगवद् गीता और दुर्गा सप्तशती में अपरा प्रकृति और प्रधान मूल प्रकृति का विस्तृत वर्णन है। अपरा प्रकृति का वर्णन करते हुए कृष्ण कहते हैं कि—
भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।। गीता 7.4
कृष्ण ने अपनी अष्टधा प्रकृति का वर्णन किया है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पाँच महाभूत तथा मन, बुद्धि, अहंकार ये ही आठ प्रकार से विभक्त कृष्ण की अपरा प्रकृति हैं। दुर्गा सप्तशती में अपरा प्रकृति का वर्णन है कि यह अपरा प्रकृति अव्यक्त दुस्तर वैष्णवी माया है। प्रकृति योनि स्वरूपा है। त्रिगुणात्मिका है। सत्त्व, रज व तम ये प्रकृति के तीन गुण हैं, दशानना, दशभुजा, दशपादा, भगवती महाकाली ही भगवान् विष्णु की योगनिद्रा है। ये सम्पूर्ण चराचर जगत् को अपने उपासक के अधीन कर देती है। ये त्रिगुणात्मिका प्रकृति सभी भूतप्राणियों में विष्णुमाया के रूप में निवास करती हैं। अपरा प्रकृति की दो शक्तियां है: (१) आवरण शक्ति, (२) विक्षेप शक्ति। अपरा प्रकृति परिवर्तनशील है, सगुण है। श्रीकृष्ण अपनी परा प्रकृति का वर्णन करते हुए कहते हैं-अपरा प्रकृति से परे मेरी एक अन्य परा शक्ति है जो जीवों से युक्त है और परा प्रकृति सम्पूर्ण संसार का मूल है।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।। (गीता 7.5) दुर्गा सप्तशती के प्राधानिक रहस्य में पराशक्ति प्रधान प्रकृति के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। मूल प्रकृति ही देवी की समस्त विकृतियों (अवतारों) की प्रधान प्रकृति है। मूल प्रकृति ही सब प्रपंच तथा सम्पूर्ण अवतारों का आदि कारण है। तीनों गुणों की साम्यावस्थारूपा अपरा प्रकृति भी उनसे अलग नहीं है। स्थूल-सूक्ष्म दृश्य-अदृश्य, व्यक्त-अव्यक्त सब मूल परा प्रकृति के स्वरूप हैं। परा शक्ति सर्वत्र व्यापक है। अस्ति, भाति, प्रिय, नाम और रूप… सब परा प्रकृति ही है।
यह व्यवस्था शास्त्रों ने सृष्टि निर्माण-संहार की दी है। यही स्वरूप जीवन का भी है। ”यथाण्डे तथा ब्रह्माण्डे’’ कहा गया है। पुरुष का विवाह होता है तब कहा जाता है कि लक्ष्मी आई है। वही समय और परिस्थिति के अनुसार (देशकाल) तीनों रूपों में जीवन संचालित करती है। कन्या का जन्म ही लक्ष्मी का आगमन कहा जाता है। पुन: जो लक्ष्मी बनकर पत्नी रूप में आ रही है, वही जीवनभर प्रकृतिरूप में व्यक्ति की रक्षा करती है। पति की शक्ति-अद्र्धांगिनी बनकर। समय के साथ तीनों रूप धारण करने की क्षमता रखती है। गीता प्रमाण है—
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा।। (7.6) सम्पूर्ण भूत दोनों प्रकृतियों से ही उत्पन्न होने वाले हैं। मैं जगत का प्रभव-प्रलय हूं। अर्थात् वे दोनों मेरा ही अन्न हैं। विवाह तो होता ही इसलिए है कि वह पूर्ण रूप से मेरे (वर की) आत्मा में अन्न रूप से आहुत हो जाए। दोनों एकाकार हो जाएं। दोनों में ही अन्न-अन्नाद भाव बना रहता है। किन्तु स्त्री का परोक्ष भाव उसे दैविक स्वरूप प्रदान करता है—परोक्ष प्रिया इव हि देवा। पुरुष बाहर अधिक जीता है, स्त्री भीतर। सृष्टि में स्त्री-पुरुष भी दो नहीं हैं। हम भी दो नहीं हैं। चेतना भी दो नहीं है। एक की भूमिका में दूसरा सहयोगी होता है।
चेतना ही उत्तर है। चेतना सदा जाग्रत रहे, यही दिव्यता का मूल स्वरूप हैै। प्रकृति में जड़ कुछ नहीं है, पत्थर भी नहीं है। वह भी समय के साथ बढ़ता है, क्षरित होता है। हां, उसकी चेतना लाखों सालों से दबी हो सकती है। चेतना ही व्यक्ति की शक्ति है। चेतना कामना रूप में कार्य करती है। सूक्ष्म होने से पकड़ में नहीं आती, ध्यान करना पड़ता है। वही हमारे ब्रह्म स्वरूप की प्रकाशक है।