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प्रकृति के सौंदर्य को लौटाने का पर्व है दशलक्षण

जो मनुष्य विनाश से बचे थे, वही यह खुशी मना रहे थे कि देखो कैसे प्रकृति पुन: अपने सौंदर्य में लौट आई है। हमें यह देखने को मिल रहा हैं। संभव है कि उन्होंने ईश्वर की पूजा की होगी, यह संकल्प किया होगा कि अब हम प्रकृति और उसमें रहने वालों को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुुचाएंगे। इसी संकल्प का परिणाम निकला होगा कि अब हम मानवता को बचाने वाले उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप और उत्तम त्याग धर्म का पालन करेंगे।

Aug 31, 2022 / 09:23 pm

Patrika Desk

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प्रकृति के सौंदर्य को लौटाने का पर्व है दशलक्षण

पूज्य सागर
जैन संत, धर्म और समाज के विषयों के मार्गदर्शक

शास्त्रों में पर्व दो प्रकार के बताए गए हैं, पहला तात्कालिक और दूसरा त्रैकालिक। तात्कालिक पर्व व्यक्ति विशेष या घटना विशेष से संबंधित होते हैं, वहीं त्रैकालिक शाश्वत पर्व न तो किसी व्यक्ति विशेष से और न ही किसी घटना विशेष से संबंधित होते हैं, बल्कि इनका संबंध आध्यात्मिक भावों से है। दशलक्षण पर्व त्रैकालिक शाश्वत पर्व है। यह प्रकृति के उत्थान से प्रारंभ हुआ पर्व है। धार्मिक शास्त्रों में भी कहा गया है और जैसा हम देख भी रहे हैं कि अनादिकाल से प्रकृति और पृथ्वी में रहने वालों का धीरे-धीरे नाश होता है। फिर पुन: इन सबका उत्थान होता है। उत्थान और पतन के पीछे संसार में बढ़ रही पाप की मात्रा है। हमें भी अब दिखाई दे रहा है कि कैसे मनुष्य के भीतर से सुख, शांति, क्षमा आदि गुण कम हो रहे हैं।
धर्म के अनुसार अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के परिवर्तन के कारण यह सब होता है। सुख, आयु, कषाय आदि जिसमें कम होती है, उसे अवसर्पिणी काल और जिसमें यह बढ़ती है, उसे उत्सर्पिणी काल कहते हैं। इन दोनों के बीच के संक्रमण काल में 96 दिन होते हैं। यह सृष्टि के नाश और सृजन का मुख्य काल होता है। सात-सात दिन तक सात प्रकार की वर्षा होती है, जिनमें विष, शीतल जल, धूम, धूल, पत्थर, अग्नि आदि की वर्षा भी शामिल है। इसके फलस्वरूप पूरी पृथ्वी नष्ट हो जाती है, सौंदर्य चला जाता है। इसके बाद प्राकृतिक सौंदर्य लौटने के सात-सात दिन तक शीतल जल, अमृत, घी, दिव्य रस, दूध आदि की वर्षा होती है। इससे पृथ्वी हरी-भरी हो जाती है और चारों तरफ खुशी की लहर दौड़ पड़ती है। इस प्रकार 49 दिन तक कुवृष्टिऔर 49 दिन तक सुवृष्टि होती है। 49 दिन की सुवृष्टि का प्रारंभ श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी से होता है और वह भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तक चलती है। कुवृष्टि से पहले जिन कुछ जोड़े मनुष्य और तिर्यंच, देवों और विद्याधरों ने विजयार्थ पर्वत की गुफा में छिपाए थे, उन्हें निकालते हैं। ये जोड़े भाद्रपद शुक्ल पंचमी से 10 दिवसीय उत्सव मनाते हैं। उसे ही आज दशलक्षण पर्व के रूप में मनाया जाता है। धर्म के अनुसार इस कथा से यह तो स्पष्ट है कि यह पर्व वास्तव में प्रकृति के सौंदर्य के पुन: लौटने की खुशी में मनाया जाने वाला पर्व है। जो मनुष्य इस विनाश से बचे थे, वही यह खुशी मना रहे थे कि देखो कैसे प्रकृति पुन: अपने सौंदर्य में लौट आई है। हमें यह देखने को मिल रहा हैं। संभव है कि उन्होंने ईश्वर की पूजा की होगी, यह संकल्प किया होगा कि अब हम प्रकृति और उसमें रहने वालों को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुुचाएंगे। इसी संकल्प का परिणाम निकला होगा कि अब हम मानवता को बचाने वाले उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप और उत्तम त्याग धर्म का पालन करेंगे।
आज हमें पुन इस संकल्प को दोहराने की जरूरत है कि भगवान की पूजा-आराधना के बाद कम से कम दस दिन तक एक पौधा लगाएंगे, गांव के आस-पास के तालाब को ठीक करवाने का अभियान चलाएंगे। वायु को प्रदूषित करने वाले साधनों यथा गाड़ी आदि का उपयोग न कर पैदल चलेंगे या जहां तक हो सके, साइकिल का उपयोग भी करेंगे। कुल मिलाकर वे सारे संकल्प लेंगे, जिनसे प्रकृति का संरक्षण हो। इसमें खादी पहनने का संकल्प भी शामिल हो सकता है। याद रखें, धर्म स्वयं के लिए ही है तो स्वयं संकल्प करो और कम से कम पांच मनुष्यों को ऐसा करने की प्रेरणा दो, तो एक नई शुरुआत हो सकती है। जो पर्व के दूसरे हिस्से को भी पूरा करेगी और तभी दशलक्षण पर्व मनाने की सार्थकता होगी। हम पर्व के पीछे छिपे रहस्यों को धीरे-धीरे जान सकेंगे। समाज ऐसे अभियान का आगाज करे, तो सरकार को भी इसके लिए आगे आकर जमीन उपलब्ध करवानी चाहिए, ताकि लाखों पेड़ लगाए जा सकें। तभी भगवान महावीर की देशना और पर्व की सार्थकता सिद्ध होगी।

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