बजट सत्र को ही देखा जाए तो यह लगता है कि तीन-चार मंत्रियों और विपक्ष के इतने ही सदस्यों के अलावा न सत्ता पक्ष में कोई दमदार, मेहनती और गंभीर नेता है और न प्रतिपक्ष में। ले-देकर विधानसभा की कार्यवाही मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, नगरीय विकास मंत्री शांति धारीवाल, प्रतिपक्ष के नेता गुलाबचंद कटारिया, उपनेता राजेंद्र सिंह राठौड़ और निर्दलीय संयम लोढ़ा के इर्द-गिर्द सिमटी नजर आती है।
इस सत्र में कई मंत्रियों का प्रदर्शन अब तक निराशाजनक रहा। उद्योग मंत्री शकुंतला रावत सवालों का जवाब ही नहीं दे पाईं। खेल मंत्री अशोक चांदना से भी दुबारा तैयारी के साथ आने को कहा गया। ऐसे तो कई मौके आए जब प्रश्नकाल में मंत्रीगण पूरक प्रश्नों का जवाब नहीं दे पाए। विधानसभा अध्यक्ष सी.पी. जोशी को स्वयं समझाना पड़ा कि सवाल का मंतव्य क्या है? महेश जोशी, भंवरसिंह भाटी, सुखराम विश्नोई, अर्जुन बामनिया कई बार घिरते नजर आए। एक मंत्री तो हर बार जवाब में यह कहते दिखे कि आपकी समस्या मुझे चैम्बर में आकर बता देना!
राजस्थान विधानसभा एक से एक कुशल वक्ताओं और वाद-विवाद में निपुण राजनेताओं के लिए जानी जाती रही है। मंत्री सदन में आने से पूर्व कठोर ‘होम वर्क’ करके आते थे। सदन में होने वाली बहसें राजनीतिक रणकौशल का सुंदर नमूना होती थीं। सदन में कोई मुद्दा उठ जाए तो कुछ न कुछ हल निकलता ही था। अधिकारी दीर्घा में तमाम अफसर पूरी तैयारी के साथ मुस्तैद बैठे रहते थे।
आज जब जरा से टेढ़े सवाल पर मंत्री बगलें झांकने लगते हैं तो लगता है कि अब ज्यादातर जन प्रतिनिधि विधानसभा की कार्यवाही की गंभीरता नहीं समझते। इन्हें लाल बत्ती की गाड़ी और मंत्री के रूप में मिलने वाली सुविधाओं से ही मतलब है। न राज्य की कोई चिंता, न जनता की। ज्यादातर मंत्री आधी-अधूरी तैयारी के साथ आते हैं। अधिकारियों की दीर्घा खाली नजर आती है, मानों वे अपनी अनुपस्थिति से जनप्रतिनिधियों का उपहास उड़ा रहे हों। विपक्ष की भी ऐसी तैयार दिखाई नहीं देती कि वह जवाब नहीं देने वाले मंत्रियों को कठघरे में खड़ा कर सके।
जनता अपने प्रतिनिधि पांच साल के लिए चुन कर भेजती है। उसे उम्मीद होती है कि वे उसकी आवाज विधानसभा में उठाएंगे। मंत्रियों से उम्मीद की जाती है कि वे अपने-अपने विभागों से संबंधित सवालों के संतुष्टि देने वाले जवाब देंगे। यह देखकर आश्चर्य होता है कि कई बार मंत्री ‘ऊपर’ से लिख कर दिया गया जवाब पढ़कर बैठ जाते हैं, मानो वे मात्र कठपुतली हों। हर कोई जल्दी में नजर आता है। सरकार भी, मंत्री भी और विधानसभा भी। इतनी जल्दबाजी क्यों? क्या विधानसभा से भी ज्यादा जरूरी कोई काम है? लोकतंत्र के स्तंभों में विधायिका का प्रमुख स्थान है।
विधायिका की शक्ति का प्रकट रूप होता है-मंत्रिमंडल। मंत्रिमंडल का गठन यदि सोच-समझ कर किया जाए तो सरकारें सफलतापूर्वक चल जाती हैं। देश और प्रदेश विकास के पथ पर सरपट दौडऩे लगते हैं। और यदि मंत्रिमंडल में जनप्रतिनिधियों के अनुभव, ज्ञान और कार्यकुशलता की बजाय व्यक्तिगत निष्ठाओं और जातिगत जोड़-तोड़ को वरीयता दी जाती है तो न सिर्फ प्रदेश बल्कि जनता भी त्राहि-त्राहि करने लगती है। आइना तो यही बयान कर रहा है।