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पहली से तीसरी पीढ़ी तक का सफर
किसानों के आंदोलनों पर नजर रखने वाले योगेन्द्र यादव ने पत्रिका को बताया कि सबसे पहली पीढ़ी अंग्रेजी हुकूमत के दौरान भड़के किसान आंदोलनों की श्रृंखला को कहा जाता है। इसमें मप्पिला का कृषक आंदोलन, चंपारण-खेड़ा-बारडोली में हुए गांधीवादी सत्याग्रह, बंगाल का तिभागा आंदोलन इत्यादि मुख्य थे जो ब्रितानवी शासन के दौरान बनाए गए भूमि और किराया कानूनों की वजह से किसानों के शोषण की प्रतिक्रियावश उठ खड़े हुए थे। आजादी ने भारतीय किसानों के मन में आशा जगाई थी और कुछ देर के लिए उनके प्रदर्शन-आंदोलन थम गए थे।
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अमित शाह महेन्द्र सिंह टिकैत थे दूसरी पीढी के नेताकिसान आंदोलन की दूसरी पीढ़ी को 1980 के दशक में किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में चले प्रदर्शनों वाले काल को माना जाता है। इसने हमें अर्थशास्त्री से सामाजिक कार्यकर्ता बने शरद जोशी और जोशीले मजूमदार स्वामी जैसे लोग दिए थे। ये धरने-प्रदर्शन कुछ-कुछ अच्छी आर्थिक स्थिति वाले किसानों के थे, जिनके सामने आधुनिकीकरण, उद्योग आधारित अर्थव्यवस्था में खुद को हाशिए पर धकेले जाने का खतरा मुख्य रूप में था। ये आंदोलन ज्यादातर फसलों के उचित मूल्य निर्धारण को लेकर थे। इसी के समानांतर बड़े जमीदारों द्वारा शोषित भूमिहीन किसानों और कृषि मजदूरों का एक और आंदोलन भी चल निकला था, जिसकी अगुवाई नक्सलवादी कर रहे थे।
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सोशल मीडिया से लैस तीसरी पीढ़ीइन दिनों जो किसान आंदोलन हो रहे हैं, उसे तीसरी पीढ़ी के कहा जाता है। अब इस तीसरी पीढी के आंदोलनों की कमान सोषल मीडिया से लैस किसान पुत्रों के हाथ में है। उनके सामने नये मुद्दे और संदर्भ हैं। उनके मां-बाप के समय से ही जमीनों का बंटवारा होने लगा था और लगातार बढ़ते जा रहे परिवारों की वजह से हिस्से में आने वाली जमीन अब कम होने लगी है। कुल मिलाकर कृषि का धंधा कंगाली का पर्याय बनता जा रहा है।
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खेती एक अव्यवहार्य पेशा बन गई है। भारतीय कृषि पर आर्थिक और पर्यावरणीय संकट गहराने लगे हैं और यह दौर भारतीय किसान के लिए अपना वजूद बचाने वाला संघर्ष बन गया है। किसान आंदोलनकारियों के सामने किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं की हकीकत मुंह बाए खड़ी है। इन आंदोलनों में यह देखने को मिल रहा है कि कैसे परंपरागत रूप से जो लकीर कभी जमीदार, गरीब किसान, भूमिहीन या पट्टे पर खेती करने वालों के अपने-अपने आंदोलनों की वजह से उनके बीच खिंची रहती थी, अब वह मिटने लगी है।ग्रामीण अंचल में हुए बदलावों ने किसानों को मजबूर किया है कि सभी वर्ग एकजुट हों। यूं तो ‘किसान-मजदूर एकता’ लंबे समय से वामपंथी दलों का नारा रहा है लेकिन इसकी गूंज हालिया आंदोलनों में सही अर्थों में सुनने को मिली है। आंदोलनों ने विभिन्न सामाजिक वर्गों को जुड़ने के लिए प्रोत्साहित किया है। वैसे भी दलित और आदिवासी लोग खेती संबंधित गतिविधियों में मुख्य रूप से लिप्त रहे हैं, फिर भी आंदोलनों में जो दर्जा मुख्यधारा के किसानों को मिला करता था वह उन्हें नसीब नहीं था।