दुनिया में एक भी ऐसा देश नहीं है जहां मजदूरों की स्थिति में सुधार हो पाया है। दुनिया के सभी देशों की सरकार मजदूरों के हित के लिए बातें तो बहुत बड़ी-बड़ी करती हैं मगर जब उनकी भलाई के लिए कुछ करने का समय आता है तो सभी पीछे हट जाती है। इसीलिए मजदूरों की स्थिति में सुधार नहीं हो पाता है। और इसी तरह भारत में भी मजदूरों की स्थिति बेहतर नहीं है। हमारे देश की सरकार भी मजदूर हितों के लिए बहुत बातें करती है, बहुत सी योजनाएं व कानून बनाती है। मगर जब उनको अमलीजामा पहनाने का समय आता है तो सब इधर-उधर देखने लग जाते हैं।
हर साल 1 मई को अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस श्रमिकों की उपलब्धियों का जश्न मनाने और श्रमिकों के शोषण के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए मनाया जाता है, उन्हें उनके अधिकारों के प्रति जगाना होता है। मगर आज तक ऐसा हो नहीं पाया है। बात करें इस दिवस की तो इस दिन की शुरुआत 1 मई सन् 1886 को अमेरिका में एक आंदोलन के कारण हुई थी।
इस आंदोलन में अमेरिका के मजदूर शामिल थे, जिन्होंने काम के लिए 8 घंटे निर्धारित करने की मांग की थी। इससे पहले इन मजदूरों से 15-15 घंटे काम करवाया जा रहा था। ऐसे में मजदूर अमेरिका की सड़कों पर उतर आए थे। इस आंदोलन के दौरान कुछ मजदूरों पर पुलिस ने गोली भी चलाई, जिसके कारण कुछ मजदूरों की मौत हो गई वहीं 100 से ज्यादा मजदूर इस आंदोलन के चलते घायल भी हुए।
इसके बाद 1889 को अंतरराष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन की बैठक हुई और इस बैठक में हर मजदूर से केवल 8 घंटे काम कराने पर मुहर लगी। साथ ही 1 मई को मजदूर दिवस मनाने का प्रस्ताव रखा गया और सभी मजदूरों के लिए 1 मई को छुट्टी देने का फैसला भी लिया गया। अमेरिका के बाद कई देशों में मजदूरों के 8 घंटे काम करने से संबंधित नियम-कानून लागू किया गया। तो वहीं अमेरिका में अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस की शुरुआत होने के 34 साल बाद यानी कि 1 मई 1923 से भारत में चेन्नई से मजदूर दिवस मनाने की शुरुआत हुई।
भारत में इसकी शुरुआत लेबर किसान पार्टी ऑफ हिंदुस्तान ने मद्रास में की थी। इस अवसर पर सिंगारवेलु चेट्टियार ने चेन्नई में लाल रंग का ध्वज लहराया था। उन्होंने दो आयोजन किये थे, पहला मद्रास उच्च न्यायालय के सामने समुद्र तट पर और दूसरा त्रिप्लीकेन समुद्र तट पर आयोजित किया था, और दोनों ही आयोजन खूब सफल रहे। लेकिन समय बीतने के साथ मजदूर दिवस को लेकर श्रमिक तबके में अब कोई खास उत्साह नहीं रह गया है। बढ़ती महंगाई और पारिवारिक जिम्मेदारियों ने भी मजदूरों के उत्साह का कम कर दिया है। अब मजदूर दिवस इनके लिए सिर्फ कागजी रस्म बनकर रह गया है।
हमारे देश का मजदूर वर्ग आज भी अत्यंत ही दयनीय स्थिति में रह रहा है। उनको न तो मालिकों द्वारा किए गए कार्य की पूरी मजदूरी दी जाती है और ना ही अन्य वांछित सुविधाएं उपलब्ध करवाई जाती है। मगर इसको अपनी नियति मान कर पूरी मेहनत से अपने मालिकों के यहां काम करने वाले मजदूरों के प्रति मालिकों के मन में जरा भी सहानुभूति के भाव नहीं रहती हैं। उनसे 12-12 घंटे लगातार काम करवाया जाता है। कारखानो में कार्यरत मजदूरों से निर्धारित समय से अधिक काम लिया जाता है विरोध करने पर काम से हटाने की धमकी दी जाती है।
मजबूरी में मजदूर कारखाने के मालिक की शर्तों पर काम करने को मजबूर होता है। कारखानो में श्रम विभाग के मापदण्डो के अनुसार किसी भी तरह की कोई सुविधायें नहीं दी जाती है। मालिको द्वारा निरंतर मजदूरों का शोषण किया जाता है मगर मजदूरों के हितों की रक्षा के लिये बनी मजदूर यूनियनो को मजदूरो की बजाय मालिको की ज्यादा चिंता रहती है। हालांकि कुछ मजदूर यूनियने अपना फर्ज भी निभाती है मगर उनकी संख्या कम है।
आजादी के इतने सालो में भले ही देश में बहुत कुछ बदल गया होगा। अपनी शर्तों को मनवाने के लिए मजदूरों को आज भी विरोध, हड़ताल और मार्च करना पड़ता है। मगर ये सब करने के बाद भी नाम मात्र कुछ मदद मिल पाती है, तो कभी-कभी उन्हें कोई मदद भी नहीं मिलती और अपनी नौकरी से भी हाथ धोना पड़ जाता है। अपनी रोजी-रोटी बचाने के लिए कुछ मजदूर आवाज भी नहीं उठाते, और मालिकों द्वारा किए जा रहे मनमानी को मानते हुए काम करते रह जाते हैं।