लीला ने महक को प्यार से अपने पास खींचकर माथे को चूमा और दरवाजा खोलकर उसके साथ बाहर निकल आई। वह स्वयं भी घर के सामने बने पार्क में बेंच पर बैठकर महक को बच्चों के साथ खेलते हुए देखने लगी। पड़ोसन मालती भी उसके पास आकर बैठ गई।
‘बधाई हो लीला! मैंने सुना है कि महक ने इस बार स्कूल की वार्षिक स्पोटर््स, पेंटिंग, म्यूजिक सभी प्रतियोगिताओं में पहला इनाम जीता है?’ मालती ने पूछा । ‘हां। मालती यह तो तुम जैसे लोगों का ही आशीर्वाद है।’ विनम्रता से लीला ने कहा।
‘वो तो है, लेकिन महक बड़ी टेलेन्टेड बच्ची है और तुम्हारा योगदान भी तो कुछ कम नहीं है। मालती ने सच्चे मन से कहा। कुछ देर तक दोनों इधर-उधर की बातें करती रहीं फिर मालती उठकर चली गई।
मालती की प्रशंसा ने लीला के मन में खुशी और गर्व का अहसास एक साथ कराया और वह विचारों के सागर में गोते लगाने लगी। काश! भाग्य महक के चेहरे के साथ यह कू्रर परिहास न करता। माथे पर उभार, नाक की जगह दो छेद, तिरछे होंठ, चेहरे का यह रूप कितना विकृत था। किन्तु नन्हीं बालिका के गजब के आत्मविश्वास ने उसके चेहरे की असामान्यता को जैसे ढक लिया था। उसकी आंखों की मासूमियत और चेहरे की मुस्कराहट सबका मन मोह लेती थी। इस नन्हीं उम्र में इतना आत्मविश्वास जगाने में लीला को कितनी मेहनत करनी पड़ी यह वही जानती है।
क्या-क्या नहीं सहा उसने? कितने ताने कितने कड़वे बोल? तरह-तरह के बेतुके सुझााव। अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखना कितना मुश्किल था लीला के लिए। महक के जन्म के समय तो सास ने सिर ही पीट लिया था ‘एक तो बेटी ऊपर से अजूबा! क्या होगा? मेरे बेटे की तो किस्मत ही फूटी है।’ मां ने भी नकारात्मक प्रतिक्रिया ही दी ‘क्या होगा लीला.. कैसे पालेगी ऐसी बच्ची को? उसके पति प्रतीक ने उसका पूरा साथ दिया। निराशा के माहौल में भी दोनों ने हिम्मत नहीं हारी।
कई डॉक्टरों से परीक्षण कराया। दोनों ने तब राहत की सांस ली जब डॉक्टर ने कहा ‘ईश्वर को धन्यवाद दें कि बच्ची में चेहरे की विकृति के अलावा कोई शारीरिक कमी नहीं है। उसका शारीरिक विकास एक सामान्य शिशु की तरह ही होगा। समय आने पर सर्जरी और आधुनिक तकनीक से चेहरे की विकृति भी दूर हो सकती है।’ लीला ने उसी समय दृढ-निश्चय कर लिया था कि अपनी बेटी को इतनी प्रतिभाशाली बना देगी कि वह अन्य बच्चों के बीच आत्मविश्वास और सहजता के साथ पेश आ सके। लीला की मेहनत रंग लाई। आज महक किस बात में कम है। पढाई में अव्वल। खेलकूद हो, या चित्रकला हो, या नृत्य, जीत उसी के नाम। संगीत भी बड़े मनोयोग से सीख रही है।
खुशमिजाज इतनी कि सारे बच्चे उसके साथ खेलना पसंद करते हैं। उसके विचारों की शृंखला कार की आवाज सुनकर टूट गई। प्रतीक ने ऑफिस से लौटकर जैसे ही कार पोर्च में खड़ी की दोनों अंदर आ गए और महक पापा की गर्दन से झाूलने लगी। प्रतीक ने उसे गोदी में उठाकर बहुत प्यार किया। रोज शाम का वक्त वह महक के साथ ही बिताता था।
लीला ने गौर किया कुछ दिनों से महक गुमसुम सी रहने लगी थी। पहले तो लीला ने जानबूझा कर अनदेखा किया किन्तु आखिर एक दिन महक को गोदी में बिठाकर पुचकारते हुए पूछा ‘मेरी गुडिय़ा रानी चुपचुप क्यों है? मम्मी से गुस्सा है क्या?’ लीला का बस इतना पूछना था महक बोल पडी ‘मम्मी मेरा भाई या बहन क्यों नहीं है? पिंकी अपने छोटे भाई अनिकेत के साथ खेलती है और अक्षरा अपनी बहन स्वरा के साथ। मेरा कोई नहीं है। मुझो भी छोटी गुडिय़ा ला दो ना।’ महक की भोली बातें लीला के दिल को गहराई तक छू गईं। बहला-फुसलाकर उसका ध्यान दूसरी बातों में लगाकर लीला अपने काम में जुट गई।
लेकिन उसका मन बड़ा विचलित था। नन्हीं बालिका ने बालमन की मनोवैज्ञानिक आवश्यकता को साफ उजागर कर दिया था। ऐसी बात नहीं थी कि वह दूसरे बच्चे को जन्म नहीं दे सकती। वास्तव में लीला और प्रतीक ने यह निश्चय कर लिया था कि वे दूसरा बच्चा आने नहीं देंगें। सारा ध्यान महक के लालन-पालन और उसके चेहरे की विकृति दूर करने के उपायों में ही लगाएंगे। उन्हें यह भी भय था कि यदि दूसरा बच्चा सामान्य हुआ तो हो सकता है महक के मन में हीन भावना घर कर जाए। किन्तु आज महक की भावनात्मक आवश्यकता ने दोनों को सोचने पर मजबूर कर दिया।
काफी विचार-विमर्श के बाद दोनों ने आखिर एक निर्णय ले ही लिया। कुछ महीनों बाद एक दिन प्रतीक ने अपनी मां को फोन पर बताया ‘मां तुम्हारे लिए खुशखबरी है, तुम फिर दादी बन गई हो। घर में लक्ष्मी आई है।’
‘इतने दिनों तक मुझासे क्यों छिपाया। क्या मैं इतनी पराई हो गई हूं। तुम दोनों को मेरी जरूरत जरा भी नहीं रही?’ ‘मां! गुस्सा छोड़ो। पहले तुम आ जाओ। फिर सारी बातें तुम्हें बताते हैं।’
दूसरे दिन मनोरमा अपने छोटे बेटे के साथ पहुंच गई। वह बच्ची को देखकर दंग रह गई। बच्ची 5-6 माह की लग रही थी और उसके चेहरे पर भी महक जैसी विकृति थी। वह कुछ कहती उसके पहले ही प्रतीक ने मां का हाथ पकड़कर कहा ‘मां! हमने यह बच्ची गोद ले ली है। हम असामान्य बच्ची को ही गोद लेना चाहते थे और भाग्य से यह बच्ची हमें शिशुगृह में मिल गई।’
‘इसे तुम भाग्य कहते हो! गोद ही लेना था तो किसी सुंदर, स्वस्थ बच्चे को लेते।’ ‘मां! तुम अपने दिमाग से इन संकीर्ण विचारों को निकाल दो। शायद इन्हीं संकीर्ण विचारों के कारण इस बच्ची के निर्दयी मां-बाप इसे शिशुगृह में छोड़कर भाग गए थे। मां, हर बच्चा ईश्वर की देन है। सुंदर और स्वस्थ संतान से तो सभी प्यार करते हैं किन्तु कमतर संतान से भरपूर प्यार करना और उसके अंदर छिपी हुई प्रतिभा को ढूंढकर उसे जीवन में आगे बढाने का पूरा प्रयास करना ही सच्ची ममता है। इन दोनों बेटियों को जीवन की सारी खुशियां देकर प्रतिभाशाली और आत्मविश्वासी बनाना ही हम दोनों का लक्ष्य है। मनोरमा को लगा जैसे किसी ने उसकी आंखें खोल दी हों।
– ललिता अय्यर