नागौर. पेस्टीसाइड का जहर केवल अनाज ही नहीं, बल्कि मिट्टी के जरिये भी अंदर तक पहुंचकर भूजल एवं मिट्टी को भी जहरीला बना रहा है। अधिकाधिक उत्पादन लेने की होड़ में इसके अधाधुंध प्रयोग ने हालात बिगाड़ दिए हैं। अनाजों में पहुंच रहे जहर न केवल शरीर को तमाम प्रकार की घातक बीमारियों से पीडि़त कर रहा है, बल्कि हवा, मिट्टी एवं पानी के जरिये पूरे पर्यावरण को भी प्रभावित किया है। कृषि अनुसंधान केन्द्र के वैज्ञानिकों की माने अनाज के माध्यम से धीमा जहर खाने के माध्यम से परोसा जा रहा है। इसकी रोकथाम के लिए प्रभावी प्रयास होने चाहिए, नहीं तो फिर आने वाले समय में न केवल जमीन बेकार हो जाएगी, बल्कि नई पीढिय़ों को बीमारियां भी जन्मजात सौगात के रूप में तेजी से मिलने लगेंगी।
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पेस्टीसाइड का खेती में कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग हो रहा है। यह सिंचाई जल और कीटनाशकों के जरिए अनाज में शामिल होकर पूरे जीवनचक्र को प्रभावित करने लगा है। इसके के ज्यादा इस्तेमाल से भूमि की उर्वरा शक्ति कम हो रही है, बल्कि यह कीटनाशक जमीन में रिसकर भूजल को जहरीला बना रहा है। नदियों तालाबों तथा अन्य जलस्रोतों में बहकर वहां के पानी को जहरीला बनाता है। इससे इंसानों के साथ-साथ जलीय जीवों, पशु-पक्षियों और पर्यावरण को खासा नुकसान पहुंच रहा है। पेस्टीसाइड के इतने ज्यादा घातक प्रभावों के बाद भी इसकी रोकथाम के लिए सरकार की ओर से कोई कठोर प्रभावी कदम नहीं उठाए जाने के कारण स्थिति बेहद खतरनाक रूप धारण करने लगी है। इससे कृषि वैज्ञानिक काफी चिंतित हैं। अक्सर वह कार्यक्रमों के माध्यम से काश्तकारों को इस संबंध में समझाने का प्रयास भी करते हुए नजर आते हैं, लेकिन कार्यक्रम समाप्त होने के बाद किसान फिर से खेतों में जाकर वही कीटनाशक का प्रयोग धड़ल्ले से करता है। यानि की स्पष्ट है कि अब बातों से केवल काम नहीं चलेगा, सरकार को कोई प्रभावी कदम उठाने होंगे, नहीं तो फिर संभलने का मौका किसी को नहीं मिलेगा।
कीटनाशकों से यह बीमारियां मिल रही हैं
कीटनाशकों के प्रभाव से अस्थमा, महिलाओं के स्तन कैंसर, बांझपन, शारीरिक विकलांगता, ऑटिज्म, डायबिटीज, परकिंसन, अल्ज़ाइमर, प्रजनन संबंधी अक्षमता और कई तरह का कैंसर होने का खतरा रहता है। बताते हैं कि कुछ अर्सा पहले यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ मेडिकल साइंसेज व गुरु तेग बहादुर अस्पताल, नई दिल्ली के डॉक्टरों ने पिछले कई वर्षों में 30-54 वर्ष के कई मरीजों के खून की जांच की तो सामने आया कि उनके खून में अल्फा और बीटा एंडोसल्फन, डीडीटी और डीडीई, डिल्ड्रिन, एल्ड्रिन, और अल्फा, बीटा, और गामा एचसीएच जैसे कई खतरनाक कीटनाशकों की मात्रा मिली। इससे स्थिति का अंदाजा खुद-ब-खुद लगाया जा सकता है।
इनका कहना है…
बेहतर उत्पादन लेने की होड़ में कीटनाशकों के बढ़ते प्रयोग से स्थिति बेहद गंभीर हो गई है। यह जहर खाद्यान्न के जरिये शरीर में पहुंचकर न केवल घातक बीमारियों से पीडि़त कर रहा है, बल्कि जल, जमीन एवं हवा को प्रदूषित कर पूरा पर्यावरण भी प्रभावित कर रहा है। इसके लिए किसानों को जैविक खेती की ओर न केवल कदम बढ़ाना होगा, बल्कि सभी को बचाने के लिए जिम्मेदारों को ठोस उपाय करने होंगे। नहीं तो फिर हालात और भी ज्यादा खराब हो जाएंगे।
गोपीचंद, अध्यक्ष एवं वरिष्ठ वैज्ञानिक कृषि अनुसंधान केन्द्र अठियासन