रालोपा हार की खामियां तलाशेगी और भाजपा के वादों पर जनता का ऐतबार कितना सच होगा, यह वक्त ही बताएगा। हैरतअंगेज भाजपा का जीतना भी उतना ही है जितना रालोपा का हार जाना। लम्बे समय से खींवसर की जनता से सीधा जुड़ाव रखने वाले ‘हनुमान’ की संजीवनी बूटी इस बार रालोपा को ‘मूर्छित ’ होने से नहीं बचा पाई। पिछले सत्र में तीन विधायक वाली रालोपा इस बार शून्य हो गई है।
खास तो यह है कि उनकी प्रतिष्ठा खींवसर सीट से अधिक जुड़ी है, यह भी हाथ से निकल गई। कांग्रेस के समर्थन से सांसद बने बेनीवाल विधानसभा में इसे बरकरार रखने में सफल नहीं रहे। कोशिश की भी होगी तो प्रदेश अध्यक्ष गोविंद डोटासरा समेत कुछ नेताओं ने इसे कारगर नहीं होने दिया। पिछली बार मामूली अंतर से हारे रेवंतराम डांगा पर भाजपा ने दोबारा भरोसा किया। इस बार उसकी रणनीती/घेराबंदी कुछ खास रही।
भाजपा ने पहले वही रास्ते चिह्नित कर बंद किए जो रालोपा के मददगार बने हुए थे। हर बार विधानसभा में कभी बसपा अथवा निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़कर अच्छे-खासे वोट हासिल करने वाले दुर्गसिंह को भाजपा में शामिल किया। असल में इसे ही हनुमान बेनीवाल की जीत का ‘मंत्र ’ माना जाने लगा था। इसके बाद अभिनव राजस्थान पार्टी के अशोक चौधरी ने भी भाजपा प्रत्याशी का समर्थन कर दिया। यही नहीं चिकित्सा मंत्री गजेंद्र सिंह खींवसर पर भी भीतरी तौर पर हनुमान की मदद के आरोप लगते रहे। बताया जाता है कि इस बार यह बात भाजपा के शीर्षस्थ नेताओं तक पहुंच गई।
इस पर उन्हें भी इस बाबत सचेत किया बताया। इसका भी असर देखने को मिला, उन्होंने खुलकर रेवंतराम डांगा के समर्थन में ना सिर्फ वोट मांगे, बल्कि हारने पर मुण्डन कराने तक की बात कही। माना जाता है कि राजपूत समेत खींवसर की कुछ अन्य जातियों के वोट इससे प्रेरित होकर डांगा की झोली में आए। आरएसएस के कुछ पदाधिकारियों ने घर-घर जाकर वोट मांगे, वो भी भाजपा की जीत का महत्वपूर्ण कारण रहा।
राज्य के मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा समेत अनेक राज्य के केबिनेट ही नहीं केन्द्रीय मंत्री तक भाजपा को जिताने की भरसक कोशिश करते दिखे। राज्य के साथ केन्द्र में सरकार होने का दंभ कहें या फिर सक्षम होने का दावा, यही नहीं नुकसान न होने की आशंका में कुछ लोगों के वोट भाजपा के हिस्से में आ जाना भी इस जीत की वजह रही।