मेरा भाई पहले क्रिकेट खेलता था और उसकी फोटो अखबार में आती थी। इसे देखकर मुझे भी क्रिकेट से लगाव हो गया। मैं अपनी मां से कहती थी कि मैं भी भाई की तरह अखबारों में छपना चाहती हूं। मुझे किसी ने नहीं रोका। हालांकि एक स्टीरियोटाइप सा था, लोग छींटाकशी करते थे। इतना मैदान में भागेगी-दौड़ेगी तो काली पड़ जाएगी, फिर कौन ब्याह कर ले जाएगा? मेरा परिवार जानता था कि यह सब बेकार की बातें हैं। मेरे पिता भी क्रिकेट खेल चुके हैं, लिहाजा उन्होंने मुझे नहीं रोका बल्कि मुझे ट्रेनिंग दिलवाई। परिवार से सपोर्ट मिला तो मैंने भी कड़ी मेहनत की।
कदम बढ़ते ही गए
हर किसी से यही कहना चाहूंगी कि जरूरत से ज्यादा सोच-विचार से बचिए, यह सीधी चीजों को जटिल कर देता है। मैंने महसूस किया कि जीवन में चीजों को सरल बनाए रखना बहुत जरूरी है। जब मैं सिर्फ नौ साल की थीं, तब मुझे महाराष्ट्र की अंडर-15 टीम में चुना गया था। एक नौ वर्षीय बच्ची के रूप में मैंने ज्यादा नहीं सोचा, अपने से उम्र में बड़े गेंदबाजों की मैंने सिर्फ गेंद देखी, उसके अनुसार अपना नैसर्गिक खेल खेला और अपने खेल का पूरा आनंद लिया।
चुनौतियों से निकलता है बेहतर काम
एकदिवसीय मैच में दोहरा शतक (224 नाबाद) हासिल करने वाली पहली भारतीय महिला क्रिकेटर होने के नाते मैं पहली बार सुर्खियों में आई थी। मुझे लगता है कि जब सामने कोई चुनौती होती है, तो मेरा सबसे बेहतर काम अपने आप बाहर आ जाता है।