महाराष्ट्र के सांगली में पेड नाम के गांव में जन्मे अशोक के पिता पेड़ के नीचे बैठकर जूते-चप्पल ठीक किया करते थे। मां खेत में मजदूरी करती थीं। अशोक जब 5वीं कक्षा में थे तो वह चक्की से आटा ला रहे थे लेकिन रास्ते में फिसल गए और आटा कीचड़ में गिर गया। जब यह बात उन्होंने मां को बताई तो वे रोने लगीं, क्योंकि उनके पास बच्चों को खिलाने के लिए कुछ भी नहीं था। अशोक ने उसी दिन गरीबी पर पार पाने का तय कर लिया।
1973 में जब अशोक 11वीं कक्षा में थे तब उनके टीचर ने पैसे देकर उनके पेन की निब बदलवाई और वह परीक्षा दे पाए। बाद में परिवार की मदद करने के लिए अशोक को पढ़ाई छोडऩी पड़ी और वह मझगांव डॉक में अप्रेंटिस का काम करने लगे। उनकी हैंडराइटिंग अच्छी थी, इसलिए उन्हें शिप डिजाइनिंग की ट्रेनिंग दी गई और चार बाद वह परमानेंट ड्राफ्ट्समैन बना दिए गए।
वह जॉब के बाद शाम को मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा करने लगे। काम के सिलसिले में अशोक जर्मनी गए और वहां उन्होंने जर्मन टेनोलॉजी को देखा। उनके बड़े भाई दत्तात्रेय और छोटे भाई सुरेश भी वहीं नौकरी करते थे। फिर अशोक ने भाइयों के साथ मिलकर दास ऑफशोर प्रा. लि. कंपनी शुरू की।
तीनों भाइयों के नाम के पहले अल्फाबेट को लेकर कंपनी का नाम दास रखा। फिर एक-एक कर तीनों भाइयों ने नौकरी छोड़ी और पूरा समय कंपनी को देने लगे। आज उनकी कंपनी की लाइंट की लिस्ट में कई बड़ी कंपनियां शामिल हैं। उन्होंने जीवन की परेशानियों से हार नहीं मानकर कामयाबी हासिल की।