उन दिनों स्वामी विवेकानंद अमरीका में एक महिला के यहां ठहरे हुए थे, जहां अपना खाना वे खुद बनाते थे। एक दिन वे भोजन करने जा रहे थे कि कुछ भूखे बच्चे पास आकर खड़े हो गए। स्वामी विवेकानंद ने अपनी सारी रोटियां उन बच्चों में बांट दी। यह देख महिला ने उनसे पूछा, ‘आपने सारी रोटियां उन बच्चों को दे डालीं। अब आप क्या खाएंगे?’ उन्होंने मुस्कुरा कर जवाब दिया, ‘रोटी तो पेट की ज्वाला शांत करने वाली चीज है। इस पेट में न सही, उस पेट में ही सही। देने का आनंद पाने के आनंद से बड़ा होता है।’
एक बार बनारस में एक मंदिर से निकलते हुए विवेकानंद को बहुत सारे बंदरों ने घेर लिया। वे खुद को बचाने के लिए भागने लगे, लेकिन बंदर उनका पीछा नहीं छोड़ रहे थे। पास खड़े एक वृद्ध संन्यासी ने उनसे कहा, ‘रुको और उनका सामना करो!’ विवेकानंद तुरंत पलटे और बंदरों की तरफ बढऩे लगे। उनके इस रवैये से सारे बंदर भाग गए। इस घटना से उन्होंने सीख ग्रहण की कि डर कर भागने की अपेक्षा मुसीबत का सामना करना चाहिए। कई सालों बाद उन्होंने एक संबोधन में कहा भी, ‘यदि कभी कोई चीज तुम्हें डराए तो उससे भागो मत। पलटो और सामना करो।
एक व्यक्ति विवेकानंद से बोला, ‘मेहनत के बाद भी मैं सफल नहीं हो पा रहा।’ इस पर उन्होंने उससे अपने डॉगी को सैर करा लाने के लिए कहा। जब वह वापस आया तो कुत्ता थका हुआ था, पर उसका चेहरा चमक रहा था। इसका कारण पूछने पर उसने बताया, ‘कुत्ता गली के कुत्तों के पीछे भाग रहा था जबकि मैं सीधे रास्ते चल रहा था।’ स्वामी बोले, ‘यही तुम्हारा जवाब है। तुम अपनी मंजिल पर जाने की जगह दूसरों के पीछे भागते रहते हो। अपनी मंजिल खुद तय करो।’
सादा जीवन जीने के पक्षधर थे स्वामी विवेकानंद। वह भौतिक साधनों से दूर रहने के की सीख दूसरों को दिया करते थे। वे मानते थे कि कुछ पाने के लिए पहले अनावश्यक चीजें त्याग देनी चाहिए और सादा जीवन जीना चाहिए। भौतिकतावादी सोच लालच बढ़ाकर हमारे लक्ष्य में बाधा बनती है।
विदेश जाने पर एक बार स्वामी विवेकानंद से पूछा गया, ‘आपका बाकी सामान कहां है?’ उन्होंने उत्तर दिया, ‘बस यही सामान है।’ कुछ लोगों ने व्यंग्य करते हुए कहा, ‘अरे! यह कैसी संस्कृति है आपकी? तन पर केवल एक भगवा चादर लपेट रखी है।’ इस पर वह मुस्कुराकर बोले, ‘हमारी संस्कृति आपकी संस्कृति से अलग है। आपकी संस्कृति का निर्माण आपके दर्जी करते हैं, जबकि हमारी संस्कृति का निर्माण हमारा चरित्र करता है। संस्कृति वस्त्रों में नहीं, चरित्र के विकास में है।’ इससे हमें सीख मिलती है कि बाहरी दिखावे से दूर रह कर अपने चरित्र के विकास पर ध्यान देना चाहिए।
अमरीका में भ्रमण करते हुए स्वामी विवेकानंद ने एक जगह देखा कि पुल पर खड़े कुछ लडक़े नदी में तैर रहे अंडे के छिलकों पर बंदूक से निशाना लगाने की कोशिश रहे हैं। किसी का एक भी निशाना सही नहीं लग रहा था। तब वे एक लडक़े से बंदूक लेकर खुद निशाना लगाने लगे। उन्होंने पहला निशाना बिलकुल सही लगाया। फिर एक के बाद एक उन्होंने 12 निशाने सही लगाए।