हम आप सब जानते हैं कि स्त्री में गुणसूत्र xx और पुरुष में xy गुणसूत्र होते हैं। इनकी सन्तति में माना कि पुत्र हुआ यानि xy गुण सूत्र। अब इस पुत्र में y गुण सूत्र पिता से ही आया होगा ये निश्चित है क्योंकि माता में तो y गुण सूत्र होता ही नहीं है। और यदि पुत्री हुई तो XX गुण सूत्र यानि यह गुण सूत्र पुत्री में माता और पिता दोनों से आते हैं।
चलिए बात करते हैं इन गुणसूत्र की संरचना की। XX गुणसूत्र की यानि पुत्री की बात करें तो, xx गुणसूत्र के जोड़े में एक x गुणसूत्र पिता से तथा दूसरा x गुणसूत्र माता से आता है और इन दोनों गुणसूत्रों का संयोग एक गांठ सी रचना बना लेता है जिसे Crossover कहा जाता है।
वहीं xy गुणसूत्र यानी पुत्र में y गुणसूत्र केवल पिता से ही आना संभव है क्योंकि माता में y गुणसूत्र है ही नहीं और दोनों गुणसूत्र असमान होने के कारन पूरी तरह Crossover नहीं होता। केवल 5 फीसदी से 95 फीसदी तक ही होता है। जबकि y गुणसूत्र ज्यों का त्यों ही रहता है। तो महत्वपूर्ण गुणसूत्र Y हुआ। क्योंकि Y गुणसूत्र के विषय में हमें निश्चित है कि यह पुत्र में केवल पिता से ही आया है। इसी y गुणसूत्र का पता लगाना ही गोत्र प्रणाली का एकमात्र उदेश्य है जो हजारों वर्ष पूर्व हमारे ऋषि-मुनियों ने जान लिया था।
उदहारण के लिए यदि किसी व्यक्ति का गोत्र कश्यप है तो उस व्यक्ति में विद्यमान y गुणसूत्र कश्यप ऋषि से आया है या कश्यप ऋषि उस y गुणसूत्र के मूल हैं। चूँकि y गुणसूत्र स्त्रियों में नहीं होता यही कारण है कि विवाह के पश्चात स्त्रियों को उसके पति के गोत्र से जोड़ दिया जाता है।
वैदिक संस्कृति या हिन्दू धर्म में एक ही गोत्र में विवाह वर्जित होने का मुख्य कारण यह है कि एक ही गोत्र से होने के कारण वह पुरुष व स्त्री भाई बहन कहलाएंगे क्योंकि उनका प्रथम पूर्वज एक ही है। लेकिन पहली बार सुनने में ये बात थोड़ी अजीब लगती है कि जिन स्त्री व पुरुष ने एक दुसरे को कभी देखा तक नहीं और दोनों अलग अलग देशों में मगर एक ही गोत्र में जन्मे, तो वे भाई बहन कैसे हो गये।
इसका मुख्य कारण एक ही गोत्र होने के कारण गुणसूत्रों में समानता का भी है। आज के आनुवंशिक विज्ञान के अनुसार यदि सामान गुणसूत्रों वाले दो व्यक्तियों में विवाह हो तो उनकी सन्तति आनुवंशिक विकारों के साथ उत्पन्न होगी। ऐसे दंपत्तियों की संतान में एक सी विचारधारा, पसंद, व्यवहार आदि में कोई नयापन नहीं होता। ऐसे बच्चों में रचनात्मकता का अभाव होता है।
विज्ञान द्वारा भी इस संबंध में यही बात कही गई है कि सगोत्र शादी करने पर अधिकांश ऐसे दंपत्ति की संतानों में अनुवांशिक दोष अर्थात मानसिक विकलांगता, अपंगता, गंभीर रोग आदि जन्मजात ही पाए जाते हैं। शास्त्रों के अनुसार इन्हीं कारणों से सगोत्र विवाह पर प्रतिबंध लगाया गया था।
इस गोत्र का संवहक यानी उत्तराधिकार पुत्री को एक पिता प्रेषित न कर सके, इसलिये विवाह से पहले कन्यादान कराया जाता है और गोत्र मुक्त कन्या का पाणिग्रहण कर भावी वर अपने कुल गोत्र में उस कन्या को स्थान देता है। यही कारण था कि उस समय विधवा विवाह भी स्वीकार्य नहीं था क्योंकि कुल गोत्र प्रदान करने वाला पति तो मृत्यु को प्राप्त कर चुका है।
अब आइये आपको बताते हैं सात जन्मों के साथ का मतलब और उसका रहस्य। आप आत्मज या आत्मजा का सन्धिविच्छेद कीजिये। आत्म + ज यानि आत्मज और आत्म + जा यानि आत्मजा। इसमें आत्म का अर्थ होता है मैं और जा या ज का अर्थ होता है जन्मा या जन्मी। मतलब मैं ही जन्मा हूँ या मैं ही जन्मी हूँ।
यदि पुत्र है तो 95% पिता और 5% माता का सम्मिलन है। यदि पुत्री है तो 50% पिता और 50% माता का सम्मिलन है। फिर यदि पुत्री की पुत्री हुई तो वह डीएनए 50% का 50% रह जायेगा। फिर यदि उसके भी पुत्री हुई तो उस 25% का 50% डीएनए रह जायेगा, इस तरह से सातवीं पीढ़ी में पुत्री जन्म में यह प्रतिशत घटकर 1% रह जायेगा। अर्थात , एक पति-पत्नी का डीएनए सातवीं पीढ़ी तक बार-बार जन्म लेता रहता है। और यही है सात जन्मों का साथ।
अब बात करते हैं जन्म जन्मान्तर के साथ की। जब पुत्र होता है तो पुत्र का गुणसूत्र पिता के गुणसूत्रों का 95% गुणों को अनुवांशिकी में ग्रहण करता है और माता का 5% डीएनए ग्रहण करता है। यही क्रम अनवरत चलता रहता है, जिस कारण पति और पत्नी के गुणों युक्त डीएनए बारम्बार जन्म लेते रहते हैं, अर्थात यह जन्म जन्मांतर का साथ हो जाता है।
एक बात और , माता पिता यदि कन्यादान करते हैं , तो इसका मतलब यह बिलकुल नहीं है कि वे कन्या को कोई वस्तु समकक्ष समझते हैं। बल्कि इस दान का विधान इस वजह से किया गया है कि दूसरे कुल की कुलवधू बनने के लिये और उस कुल की कुलधात्री बनने के लिये, उसे गोत्र मुक्त होना चाहिये। डीएनए मुक्त तो हो नहीं सकती क्योंकि भौतिक शरीर में वे डीएनए रहेंगे ही, इसलिये मायका अर्थात माता का रिश्ता बना रहता है।
गोत्र यानी पिता के गोत्र का त्याग किया जाता है। तभी वह भावी वर को यह वचन दे पाती है कि उसके कुल की मर्यादा का पालन करेगी यानी उसके गोत्र और डीएनए को दूषित नहीं होने देगी, वर्णसंकर नहीं करेगी। क्योंकि कन्या विवाह के बाद कुल वंश के लिये रज का रजदान करती है और मातृत्व को प्राप्त करती है। यही कारण है कि प्रत्येक विवाहित स्त्री माता समान पूज्यनीय हो जाती है। यह रजदान भी कन्यादान की ही तरह कोटि यज्ञों के समतुल्य उत्तम दान माना गया है जो एक पत्नी द्वारा पति को दान किया जाता है।