हरिओम द्विवेदी
लखनऊ. उत्तर प्रदेश चुनाव की दुंदभी बज चुकी है। विधानसभा चुनाव में उंगलियों पर गिनने को ही दिन बचे हैं। 21 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश से चुनावी मुद्दे गायब हैं। मतदाता खामोश और पार्टियां बेचैन हैं। कांग्रेस की शीला दीक्षित न तो जनता में कोई उम्मीद जगा सकी हैं, न पार्टी में। भाजपा भी बिना दूल्हे के बारात निकालने की तैयारी में है। कोई बड़ा मुद्दा न मिल पाने से बसपा सुप्रीमो मायावती के चेहरे पर भी हवाइयां उड़ रही हैं। वह सोशल इंजीनियरिंग के बूते यूपी चुनाव जीतने की बात करती हैं। मुख्यमंत्री अखिलेश पारिवारिक घमासान में पूरी तरह फंसे दिख रहे हैं। बड़े स्थानीय मुद्दे पार्टियों का हिस्सा नहीं हैं।
कानून-व्यवस्था
उत्तर प्रदेश में कानून-व्यव्स्था सबसे अहम मुद्दा है। विरोधी दल इसी मुद्दे पर सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी को घेरते रहे हैं। आंकड़े भी बताते हैं कि समाजवादी पार्टी की सरकार में अपराधों में इजाफा हुआ है। हालांकि, मुख्यमंत्री अखिलेश यादव डॉयल यूपी 100, 1090 जैसे बड़े सुधारों के जरिए क्राइम का ग्राफ सुधारने का दावा करते हैं। विरोधी दल खासकर सपा और भाजपा लॉ एंड ऑर्डर के मुद्दे पर अखिलेश सरकार पर हमलावर होते रहे हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव में कानून-व्यवस्था एक प्रमुख मुद्दा है, लेकिन फिलहाल यह मुद्दा अखबारों की हेडलाइन्स तक ही सीमित है।
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narendra-modi-reputation-on-stack-in-up-vidhan-sabha-chunav-2017-1475367/” target=”_blank”>यूपी चुनाव जीते तो भाजपा की बल्ले-बल्ले, हारे तो मोदी की किरकिरी तय!
विकास का एजेंडा
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव विकास के दम पर उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव जीतने का दम भरते हैं। वह लखनऊ मेट्रो, आगरा एक्सप्रेस वे, जनेश्वर मिश्र पार्क, समाजवादी पेंशन योजना जैसे कई कामों के बूते फिर से सत्ता में वापसी करना चाहते हैं और इसी मुद्दे पर वह जनता से समर्थन भी मांग रहे हैं। वहीं, प्रमुख विपक्षी दल बसपा व भाजपा मुख्यमंत्री के विकास के दावों को खोखला बताते हैं। बसपा का दावा है कि इन चार सालों में सपा ने प्रदेश के विकास की रफ्तार धीमा कर दी, जबकि भाजपा का कहना है कि सपा और बसपा की सरकारों ने प्रदेश को दसियों साल पीछ धकेल दिया। अभी भी उत्तर प्रदेश भारत के दूसरे राज्यों की तरह विकास में अव्वल नहीं है।
जातीय समीकरण
सुप्रीम कोर्ट भले ही कहता रहे, चुनावों में जाति, धर्म का खेल नहीं खेला जा सकता। सूबे को फिलहाल इससे मुक्ति मिलती नहीं दिख रही। विधानसभा चुनाव से ठीक पहले सपा ने 17 पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिए जाने पर मुहर लगा दी। यूपी इन जातियों की हिस्सेदारी करीब 13 फीसदी है। अखिलेश सरकार के इस कदम को इन जातियों को वोट में तब्दील करने की पहल के तौर पर देखा जा रहा है। बसपा सुप्रीमो मायावती भी 2007 में इन जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने के लिए केंद्र सरकार को पत्र लिख चुकी हैं। इसके अलावा उन्होंने टिकट वितरण में जातीय फैक्टर का खास ध्यान रखा है। उत्तर प्रदेश में पिछड़ों के वोट हथियाने के लिए भाजपा भी लंबे समय से इस वर्ग के नेताओं के सहारे आगे बढ़ रही है। भाजपा प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य इस पहल का एक हिस्सा हैं।
किसानों का हाल
नोटबंदी के करीब दो महीनों बाद भले ही शहरी इलाकों में स्थिति सुधरी है, लेकिन किसान आज भी परेशान है। नोटबंदी से सबसे ज्यादा नुकसान उसे ही उठाना पड़ा है। प्रधानमंत्री के इस फैसले के बाद किसानों के अनाज के उचित दाम नहीं मिल रहे हैं। उसे अपने धान को औने-पौन दामों में बेचना पड़ रहा है। मंडियों में आलू नहीं बिक रहा है। कई जिलों में तो आलू कोल्ड स्टोरेज में ही सड़ गया। फिर भी सपा, बसपा, भाजपा और कांग्रेस समेत तमाम राजनीतिक दल किसानों के हितैषी होने का दावा करते हैं। राजनीतिक जानकारों की मानें तो सियासी दल अभी तो किसानों की बात तो कर रहे हैं पर उनके मुद्दे अंजाम तक पहुंचाएंगे, संशय है। क्योंकि आजादी के बाद से अभी तक किसानों की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ है।
इन मुद्दों के अलावा भी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और पर्यावरण जैसे कई जरूरी मुद्दे हैं, जिन्हें सभी पार्टियों के घोषणा पत्रों में शामिल होना चाहिए और इन मुद्दों को आधार बनाकर ही चुनाव में उतरना चाहिए। ये मुद्दे हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, गरीब, अमीर, सवर्ण और अल्पसंख्यक सभी के लिए अहम हैं।
Hindi News / Lucknow / आखिर पार्टियां इन्हें क्यों नहीं बनातीं चुनावी मुद्दे ?