लोहे के बाड़ और ताले में बंद हुए श्रीरामलला, हिंदू रहे अडिग
‘’अरे साहब ! चमत्कार हो गया! ! बाबरी ढांचे में रामलला प्रकट हो गए हैं। एक मुस्लिम सिपाही अब्दुल बरकत ने भी देखा कह रह है कि उसने रात में खुदाई रौशनी वहां पर देखी है। सुबह सात बजे अयोध्या थाने के सिपाही माता प्रसाद ने थानाध्यक्ष रामदेव दूबे को बताया…।’’
सिपाही माता प्रसाद की सूचना के बाद थानाध्यक्ष बदहवास भागे श्रीरामजन्म भूमि की तरफ। मामला सही निकला, फौरन भागकर उच्चाधिकारियों को सूचना दिए कि कमाल हो गया साहब, श्रीराम लला प्रगट हो गए हैं।
Ram Mandir Katha: रामलला प्रकट हो गए। अयोध्या के संत-महात्माओं ने विवादित ढ़ाचे के अंदर बीच में मुख्य गुंबद के नीचे भगवान रामलला की बालरुप प्रतिमा स्थापित कर दी। यह आरोप था लेकिन आस्था और श्रद्धा कहती है कि चमत्कार है। लीला है। रामजी के लिए कुछ भी संभव है। बहरहाल, भोर होने तक काफी भीड़ इक_ा हो चुकी थी। जयकारे लगने लगे। जयश्रीराम से अयोध्या का आसमान गूंज उठा। जिसे देखो वही सारा काम छोडक़र जन्मभूमि की तरफ भागा चला आ रहा है।
यह वही स्थान है, जिसे 1885 के सिविल अपील संख्या 27 पर फैसला देते हुए जिला न्यायाधीश एफ ई ए शेमियर ने लिखा कि- ‘’यह दुर्भाग्य की बात है कि ऐसे किसी स्थान पर मस्जिद बनाई गई जिसे हिंदू पवित्र मानते हैं। 365 वर्ष पहले घटी घटना की शिकायत इतनी देर हो जाने के बाद दूर नहीं की जा सकती।’’
भजन -कीर्तन के बीच ही अयोध्या थाने के सिपाही माता प्रसाद भागकर थाने पहुंचे और थानाध्यक्ष रामदेव दूबे को बताए- ‘’साहब चमत्कार हो गया। बाबरी ढांचे में श्रीरामलला प्रगट हो गए हैं। हिंदू जुटे हैं, भारी कीर्तन-भजन हो रहा है। चमत्कार है, चमत्कार… ! !’’
थानाध्यक्ष ने दर्ज किया मुकदमा सिपाही माता प्रसाद की सूचना के बाद थानाध्यक्ष बदहवास भागे श्रीरामजन्म भूमि की तरफ। मामला सही निकला, फौरन भागकर उच्चाधिकारियों को सूचना दिए कि कमाल हो गया साहब, श्रीराम लला प्रगट हो गए हैं। अधिकारियों के निर्देश पर उन्होंने अयोध्या के कुछ लोगों के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया।
भारतीय दंड संहिता की धारा 147, 295 और 448 के अंर्तगत मामला दर्ज किया गया। दूसरी तरफ श्रीराम लला के प्रगट होने से मुसलमानों में रोष फैल गया। फौरन सबको जुटाया गया और मुसलमानों ने एकराय फैसला किया कि जिस जगह नमाज नहीं पढ़ी जा रही थी वहां पर हिंदुओं को हटाकर नमाज पढ़ी जाएगी।
शुरू हो गई गिरफ्तारियां जन्मभूमि पर मुसलमानों के नमाज पढऩे के फैसले से स्थिति तनाव पूर्ण हो गई। कानून व्यवस्था की गंभीर होने वाली स्थिति का अनुमान करके पुलिस ने दोनों पक्षों के लोगों को गिरफ्तार करने का फैसला किया। लेकिन हिंदू टस से मस नहीं हुए। रामलला की प्रतिमा किसी कीमत पर छोडऩे को तैयार नहीं थे।
हिंदू जमे रहे, चाहे कुछ भी हो जाए हटेंगे नहीं। दूसरी ओर मुसलमानों में आक्रोश फैलता जा रहा था। 29 दिसंबर 1949 को फैजाबाद के नगर दंडनायक गुरुदत्त सिंह की रिर्पोट के आधार पर भारतीय दंड संहिता की धारा 145 के अंर्तगत पूरे परिसर को कुर्क कर लिया गया और रिसीवर नियुक्त कर दिया। साथ ही साथ मुख्य गुंबद के नीचे पूजा आरती चलती रही।
श्रीराम लला हुए ताले में बंद जन्मभूमि परिसर को कुर्क करने और रिसीवर नियुक्त करने के साथ ही श्री रामलला के दरवाजे पर ताला लगा दिया गया। हांलाकि ताला लगाने के बावजूद तत्कालीन जिला मजिस्टे्रट केके नैयर और सिटी मजिस्टे्रट गुरुदत्त सिंह की भूमिका की सभी ने सराहना किया।
आगामी कई दशकों तक इन दोनों अधिकारियों की फोटो बाएं गुंबद के नीचे दीवार पर टंगी रही जिसके आगे लोग हाथ जोड़ते रहे। विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक सिंहल कई अवसरों पर इन दोनों अधिकारियों को ही ‘’प्रथम कारसेवक’’ कहते रहे।
वादी सनानत धर्मावलंबी है अपने देवताओं की पूजा करना चाहता है 16 जनवरी, 1950 को अयोध्या के गोपाल सिंह विशारद ने फैजाबाद कोर्ट में स्थाई और सतत निषेधाज्ञा का प्रथम दावा किया। उन्होंने न्यायालय में मांग किया कि ‘’वादी सनातन धर्मावलंबी है, वह अपने देवताओं के दर्शन और पूजन करना चाहता है। 1950 को जब वह अपने देवताओं की पूजा करने गया तो भगवान राम के दर्शन करने से प्रतिवादियों जहूर अहमद, हाजी फैंकू, मुहम्मद सफी, अच्छे मियां, मुहम्मद फारुख, पुलिस अधीक्षक और उत्तर प्रदेश सरकार ने उसे दुराग्रह से प्रेरित होकर रोकने का प्रयास किया। मूर्तियों को हटाने, प्रवेश बंद करने और पूजा-पाठ व दर्शन में व्यवधान डालने से उन्हें रोका जाए।’’
सुनवाई के बाद सिविल जज भीमसिंह ने अंतरिम आदेश गोपाल सिंह विशारद के पक्ष में देते हुए टिप्पणी किया कि- ‘’यह बात प्रत्येक ओर से सिद्ध है कि मुकदमा दायर करने के पहले से ही मस्जिद में मूर्ति स्थापित थी। कुछ मुसलमानों ने भी अपनी दलील में कहा था कि मस्जिद को 1936 से मुसलमानों के द्वारा नमाज आदि में प्रयुक्त नहीं किया गया है और हिंदू निरंतर इस विवादास्पद जगह पर पूजा-अर्चना करते रहे हैं। निषेधाज्ञा में अदालत ने कहा कि वादी को पूजा-अर्चना करने दी जाए। प्रतिवादी इस कार्य में किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुंचाएं।’’
इस आदेश के खिलाफ प्रतिवादी इलाहाबाद उच्च न्यायालय पहुंंच गए लेकिन 26 अप्रैल 1955 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ओ एच मूथूम और रघुवर दयाल की खंडपीठ ने फैजाबाद सिविल अदालत के फैसले को ही बरकरार रखा। आगे हम आपको बताएंगे कि दिंगबर अखाड़े के महंत रामचंद्र दास ने कानूनी लड़ाई को और आगे कैसे बढ़ाया…।