अभिधा ने मंद पड़ी आवाज में धीरे-धीरे कहना शुरू किया.. ‘ठीक है बाबूजी। इस बार भी भाभी ने मेरा पसंदीदा खाना बनाया पर मुझे पहले जैसा स्वाद नहीं आया। मेरी पसंद की खीर भी थी पर उसमें मिठास ही नहीं थी। हम लोग वहां का सबसे बड़ा बगीचा देखने गए पर मुझे वहां फूल ही नहीं दिखे। और तो और भाइयों ने मुझे और बच्चों को पसंद के कपड़े भी दिलाए पर उन रंगीन कपड़ों में मुझे कोई रंग नजर ही नहीं आया। दिनभर पूरा आराम मिलता था बाबूजी ! किसी तरह की कोई जिम्मेदारी नहीं थी! इसके बावजूद भी मन में असहनीय भार था।
आप तो जानते हैं मायके में मेरा एक अलग स्पेशल बड़ा कमरा है। बड़ा बिस्तर है पर इस बार बाबूजी उस बिस्तर पर नींद बिल्कुल नहीं आई। यहां तक कि मेरी सहेलियां भी मुझसे मिलने आई पर उनकी बातें भी मुझे बेमानी ही लगीं। हर बार की तरह इस बार भी मैंने खूब शॉपिंग की, पर उसमें भी कोई खुशी, कोई चमक नहीं मिली। भाई नई-नई मूवी लगाता पर हरदम मूवी की शौकीन रहने वाली आपकी बहू में मूवी का कोई क्रेज नहीं था। बातों के जादूगर मेरे पिताजी से भी घंटों बतियाने के बावजूद यह मन नहीं बहल सका।
रह -रहकर, दबे पांव, मैं बार-बार उसी कमरे की ओर जाती और दूर से निहारा करती ! कभी-कभी तो ऐसा लगता जैसे मुझे पुकारा गया हो! पास जाकर देखती तो केवल बाहर से पर्दा हवा में हिलता-डुलता ही नजर आता! अंदर सब कुछ सूना ही दिखता। पहले तो मैं बार-बार फोन करके अविनाश से पूछती थी! दो दिन और ज्यादा रह जाऊं क्या? इस बार हफ्ते भर पहले ही मायके से आ गई !’
अभिधा की बातें सुन रहे परिवार वालों की आंखों में आंसू छलक पड़े थे। सासू मां उठी। अभिधा के कंधे पर हाथ रखा, ‘ऐसा नहीं कहते बेटा!’ वह सासू मां से लिपट पड़ी रुंधे गले के साथ, सिसकते हुए कहने लगी,‘जब मां नहीं होती है तब जिंदगी फीकी -फीकी और अधूरी सी लगने लगती है! जब सिर से उसका आंचल हट जाता है तब मंद- मंद चलती शीतली बयार भी तूफान की तरह लगने लगती है।