पहले हाड़ौती उत्सव के समय जब कोटा में सांगोद के कलाकारों ने इन हैरतअंगेज लागों का प्रदर्शन किया था तो हजारों की भीड़ इन्हें देखने के लिए उमड़ पड़ी थी। वो अस्सी के दशक की बात है। उस समय दशहरे के अलावा किसी अन्य आयोजन में इतने लोग एकसाथ नहीं जुटते थे। अब तो कई कई दिन तक लोग इसी चर्चा में लगे रहते हैं कि किसकी रैली में ज्यादा लोग आए और क्यों आए? चुनाव के दिनों में अपने पक्ष में ज्यादा से ज्यादा भीड़ जुटाकर नेता अपने विरोधी का विश्वास डांवाडोल करना चाहते हैं या अपने आत्मविश्वास को नई ऊर्जा देना चाहते हैं, यह मनोवैज्ञानिकों के लिए विश्लेषण का विषय हो सकता है।
कहते हैं कि प्राचीनकाल में सांगोद की लागों का तिलिस्म बंगाल के कालूजादू से भी अधिक प्रसिद्ध था। दूर दूर से लोग यहां जादू सीखने आया करते थे। हाड़ौती अंचल प्राचीनकाल में जादू और तंत्र-मंत्र के लिए भी विख्यात रहा है। झालावाड़ जिले में छापी नदी के किनारे दलहनपुर नामक एक प्राचीन नगर के अवशेष हैं।
यहां मौजूद एक इमारत के बारे में पुराविदों का कहना है कि यह अपने समय में तंत्र विश्वविद्यालय रहा होगा। याने हमने तंत्र विश्वविद्यालय से कृषि और तकनीकी विश्वविद्यालयों तक का सफर तय किया है। बचपन में हम सबने मदारी का खेल देखा है। अपने हाथ में वो कोई चीज़ पकड़ता था और जोर से कहता था ‘चुर्रघुस्स’। हाथ से पकड़ी हुई चीज़ गायब हो जाती थी और फिर मदारी के थैले में निकलती थी।
राजनीति में भी यह ‘चुर्रघुस्स’ की गूंज इन दिनों हावी हो गई है। जिस तरह लागों का तिलिस्म आम लोगों को समझ नहीं आता था, उसी तरह राजनीति का चुर्रघुस्स भी आमआदमी की बुद्धि को चकराने लगा है। कल तक जो नेता किसी एक दल को पानी पी पीकर कोसता था, आज वो उसी दल के प्रेम में कच्चे सूत से लटका हुआ बैलगाड़ी का पहिया हो गया है।
पहले राजनीति मुद्दों की बात करती थी, अब राजनेता मौकों की बात करते हैं। पहले राजनीति में विचार हुआ करता था, अब विचारों पर विकार हावी होने लगा है। पहले समर्पित कार्यकर्ताओं की चवन्नी चला करती थी, अब चवन्नी खुद बंद हो गई है, बेचारे कार्यकर्ता क्या करें? उन्हें चुर्रघुस्स से उम्मीद है, लेकिन चुर्रघुस्स है कि कच्चे सूत को पकड़कर बैलगाड़ी के पहिये के साथ लटक गया है।