साक्षर भारत कार्यक्रम अंतर्गत ग्राम पंचायत में लोक शिक्षा केंद्र और गांव में साक्षरता केंद्र संचालित की गई। जिले में ३६८ लोक शिक्षा केंद्र संचालित हैं, जिसके लिए पूर्व में ७३१ प्रेरक और अनुदेशक नियुक्त किए गए थे। इन्हें २००० रुपए मासिक वेतन दिया जाता है। मतलब सालाना एक करोड़ ७५ लाख ४४ हजार रुपए पढ़ाने वालों पर खर्च होते हैं। इसके अलावा स्टेशनरी, कमरा किराया, बिजली बिल सहित अन्य खर्च व परीक्षा आयोजन में भी साल में दो बार लाखों रुपए खर्च हो जाते थे। मतलब सालाना ढ़ाई से अधिक की राशि खर्च की जा रही है।
जनगणना २००१ में जिले की साक्षरता दर ५५.१५ फीसदी थी और २०११ में ६०.८५ प्रतिशत हुई। साक्षरता दर बढ़ाने के नाम पर शिक्षा विभाग से लेकर सर्व शिक्षा अभियान और साक्षर भारत कार्यक्रम तक करोड़ों रुपए फूंक दिए गए, लेकिन १० साल में साक्षरता केवल ५.७ प्रतिशत ही बढ़ पाई। इसमें पुरुषों की साक्षरता दर मात्र १.९८ प्रतिशत ही बढ़ पाई। १० साल में महिलाओं का साक्षर ३९.४७ की जगह ४८.७१ हो गई। बावजूद यह भी महज सरकारी आंकड़े हैं।
सालभर शिक्षार्थियों को कुछ पढ़ाया न लिखाया लक्ष्य पूरा करने के लिए सीधे परीक्षा में बिठाया जाता था। जबकि साक्षरता दर बढ़ाने के लिए लोक शिक्षा केंद्रों में छह-छह माह का कोर्स भी कराया जाना का लक्ष्य रहता था। लोक शिक्षा केंद्र व साक्षरता केंद्र के माध्यम से शिक्षार्थियों को प्रेरकों द्वारा ३०० घंटे पढ़ाई का लक्ष्य रहता है। लेकिन जिले के २० फीसदी केंद्रों में इसका पालन होता ही नहीं हुआ। इसके चलते ही अधिकतर गांवों की स्थिति आज भी अंगूठा छाप ही है।
साक्षरता की पोल इस परीक्षा से नहीं बल्कि पंचायत चुनाव के समय दिखाई दिया। पंचायत चुनाव के दौरान ८० फीसदी ग्रामीणों ने मतदान के दौरान अपना नाम लिखने या फिर हस्ताक्षर करने के बजाए अंगूठा लगा लगाए। यदि साक्षर भारत कार्यक्रम का क्रियांवयन उचित ढंग से होता और लोक शिक्षा केंद्रों में अनपढ़ महिला-पुरुषों को पढ़ाया जाता तो चुनाव के दौरान गांवों में भी मतदाता अंगूठा नहीं हस्ताक्षर करते।
चंद्रकांत कौशिक, प्रभारी अधिकारी, साक्षर भारत कार्यक्रम, कबीरधाम