जोधपुर

दीपावली पर घर आंगण से लुप्त हो रहे पारम्परिक राजस्थानी ‘मांडणे’

देश के विभिन्न राज्यों में त्योहारों-खुशियों के मौकों पर अलग अलग नाम से है ‘रंगोली’ की परम्परा
 

जोधपुरOct 27, 2019 / 11:35 am

Harshwardhan bhati

दीपावली पर घर आंगण से लुप्त हो रहे पारम्परिक राजस्थानी ‘मांडणे’

जोधपुर. त्योहारों और खुशियों के मौकों पर महाराष्ट्र में रंगोली, बंगाल में अल्पना, यूपी में चौक पूरना या सोन रेखना, बुंदेलखंड में सांजा, बिहार में अटपन, केरल में कलमपरत, तेलगू में मूग्गू, हिमाचल में आदिपन और दक्षिणी प्रदेशों में कोलम के नाम से ‘मांडणे’ जाने जाते है लेकिन मारवाड के मांडणों (रंगोली) के प्रति कई प्रकार के विश्वास एवं आस्थाएं प्रचलित है।
राजस्थानी मांडणें हमारी परम्परा, सभ्यता व संस्कृति के विकास की साक्षी, आस्था एवं रिवाजों के दर्पण हैं। पुरानी पारिवारिक परम्परा के रूप में ये मांडणें विशिष्ट स्तर की संस्कृति के परिचायक हैं। वर्तमान समय में यह परम्परा लुप्त होती जा रही है। समय रहते नई पीढ़ी को इसके महत्व और विशिष्टता की ओर ध्यान नहीं दिलाया गया तो यह परम्परा शनै-शनै लुप्त हो जाएगी।
दीपावली को मांडणे बनाकर करते है घी का दीपक रोशन
मारवाड़ में मांडणों में हमेशा शुभ एवं सौभाग्यशाली रंग ही काम में लेते हैं। मांडणे चौक में बनाकर रात के पूजन के बाद उन पर गेहूं के ‘आखा’ रखकर घी का दीपक रोशन किया जाता है। मांडणों में दीपावली के स्वास्तिक, लक्ष्मीजी या अन्य देवी देवता का अंकन कर पूजन के बाद घर में बने मिष्ठान से भोग लगाया जाता है। मांडणों के बनाने के बाद जब तक मिटाया नहीं जाता तब तक कि वे स्वयं अपने आप साफ नहीं हो जाते है।
‘मांडणा’ बनाना कोई किसी को नहीं सिखाता
‘मांडणा’ का शाब्दिक अर्थ है-कुछ बनाना, दीवारों पर या चौक में अलंकृत चित्रांकन करना। मारवाड के मांडणों में यहां की संस्कृति, परंपराओं ओर आस्थाओं का चित्रांकन सहन रूप में प्रदर्शित होता है। ‘मांडणा’ बनाना कोई किसी को नहीं सिखाता है। घर की वयोवृद्ध महिलाएं घर में खुशियों के मौकों अथवा तीज-त्यौंहारों पर ये आकृतियां बनाती है। घर की बालिकाएं सहज रूप से उसका अपने मन में चित्रांकन करते हुए सीख जाती है। मारवाड़ में मांडणा बनाने में गेरू एवं सफेद खडिया चूना ही उसके प्रमुख उपकरण हैं। मिट्टी का आंगन गोबर से लीपकर पहले तैयार किया जाता है।
पाठ्यक्रम में शामिल हो मांडणा कला
स्कूल स्तर पर पाठ्यक्रम में मांडणा कला को आवश्यक रूप से सम्मिलित किया जाए तो इस कला को बचाया जा सकता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस लुप्त होती कला को बचाने के लिए कॉलेज स्तर पर या किसी रिसर्च सेंटर के माध्यम से मांडणा कला पर कार्यशालाओं का आयोजन किया जाना चाहिए।
– डॉ. विक्रमसिंह भाटी, कला, साहित्य व संस्कृति विशेषज्ञ, सहायक निदेशक राजस्थानी शोध संस्थान चौपासनी

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