सन्ततमेव महार्घंं त्वद्वांग्मयकौस्तुभं स्फुरति ।। यद्यपि भारत कोहिनूर हीरे से बिरहित है, तथापि $गालिब के वांगमय रूपी मूल्यवान कौस्तुभ मणि से सुशोभित हैं। महान कवि वह होता है, जिसके पास शब्द अहम हैं। सुप्रसिद्ध शाइर गालिब ने वे ही शब्द तथा वे ही अर्थ प्रयुक्त किए हैं तथापि उनकी लेखनी का स्पर्श पाकर वे नूतन के समान प्रतीत होते हैं। $गालिब का संस्कृत अनुवाद वही कर सकता है, जिसमें उर्दू भाषा का दृढ़ संस्कार हो तथा संस्कृत भाषा की परम्परा और मर्यादा से भी जो सुपरिचित हो। आचार्य जगन्नाथ पाठक संस्कृत कवियों की उस समृद्ध परम्परा के दृढ़ स्तम्भ हैं, जिसमें उर्दू की गजल व रूबाई आदि विधाएं अनायास रूपान्तरित हो कर नवनवोन्मेष से आविर्भूत होती हैं। भट्ट मथुरानाथ शास्त्री, आचार्य बच्चूलाल अवस्था, आचार्य अभिराजराजेन्द्र मिश्र, महारादीन पाण्डेय ऐहिक, प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी, डॉ. हर्षदेव माधव आदि आधुनिक संस्कृत साहित्य को नवीन विधाओं तथा विषय-वैविध्य से समृद्ध कर रहे हैं। आचार्य जगन्नाथ पाठक की कविता का मूल धरातल भी प्रणय रहा है। उनके समग्र साहित्य में एक अनाम प्रेम-पिपासा परिलक्षित होती है, जो वस्तुत: अप्राप्त को प्राप्त करने की अदम्य अभिलाषा है। कवि ने स्वयं मधुशाला के प्रतीक द्वारा वैयक्तिक प्रेम की विश्वजनीन अनुभूति को अभिव्यक्ति दी है :
चषका इह जीवने मया परिपीता अपि चूर्णिता अपि।
मदमेष भिभर्मि केवलं क्षणपीतस्य मधुस्मितस्य ते ।। (कापीशायनी-2)
( प्याले इस जीवन में मैने पीये भी और फोड़े भी पर मद मैं धारण किए हूं तेरे मधुमय स्मित ( मुस्कान ) का जो पिया किसी क्षण )
कवि जगन्नाथ पाठक स्वयं कविता के पथ के सुप्रसिद्ध पथिक हैं। उनकी यह घोषणा हमें रोमांचित करती है कि मैं स्वयं ही मार्ग का निर्माता हूं और स्वयं ही उस पथ का पथिक हूं। अपने लक्ष्य को भी मैंने ही कल्पित किया है। अत: मैं अद्वितीय हूं। कवि का यह स्वाभिमान सार्थक प्रतीत होता है, जब उनके द्वारा किए गए गालिब काव्यम् इस अनुवाद पर हम दृष्टिपात करते हैं। गालिब का एक शेर है:
बस कि दुश्वार है, हर काम का आसां होना।
आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्सां होना।
कार्यस्य प्रत्येकं सरलीकरणं हि दुष्करं तवित।
मनुजस्यापि न भाग्ये ह्यधिगन्तुमिह मानवत्वम् ।। इस अनुवाद में आदमी और इन्सां के लिए जगन्नाथ पाठक ने मनुज तथा मानवत्व का प्रयोग किया है। यही अनुवाद की सार्थकता है। दोनों की अर्थवत्ता के अन्तर को उन्होंने रेखांकित कर अनुवादक की भूमिका के साथ पूर्ण न्याय किया है।हम को मालूम है जन्नत की हकीकत, लेकिन दिल के खुश रखने को, $गालिब यह ख्याल अच्छा है। आचार्य पाठक के द्वारा किया गया अनुवाद:-
स्वर्लोकस्य सुविदितं याथाथ्र्यं हन्त तावदस्माकम् ।
यह ख्याल अच्छा है , इस अंश के लिए संस्कृत भाषा में एब: विचार: ह्दयस्य तोषाय का प्रयोग किया गया, जो कि वास्तव में हृदय को सन्तुष्ट करता है।अनुवाद की प्रक्रिया एक चुनौती है। प्रतिपद गम्भीर काव्य का किसी भाषा में पद्यानुवाद करना अत्यन्त दुर्लभ है। उसमें भी संस्कृत अनुवाद करना तो एक प्रकार से असम्भव सा प्रतीत होने वाला उपक्रम है। परन्तु आचार्य पाठक का यह मन्तव्य है कि गालिब की कविता सहृदयों के समक्ष स्वयं को प्रकट करने के लिए उत्कण्ठित ही रहती है। अत: कवि-प्रज्ञा ने अनुवाद में अनेक नवीन-सरणियों का अन्वेषण कर लिया है। जब गालिब कहते हैं:-
अच्छा अगर न हो तो मसीहा का क्या इलाज।
इस अंश में प्रयुक्त मसीहा शब्द का संस्कृतानुवाद असम्भव ही था अत: पाठक जी ने मसीहा शब्द में विभक्ति का प्रयोग कर उसे संस्कृत का ही शब्द बना दिया:
यदि न स्यान्नीरोग: किन्नु मसीहस्य भैषज्यम् ।
मेहरबां हो के बुला लो मुझे, चाहो जिस वक्त।
मैं गया वक्त नहीं हूं कि फिर आ भी न सकूं।।
इस शेर में मेहरबां के लिए संस्कृतानुवाद कठिन ही प्रतीत होता है परन्तु पाठक का कवित्व संस्कार उन्हें शब्द सामथ्र्य प्रदान करता है :
आर्दीभूयागन्तुं निर्दिश में……,सम्वेदना से आद्र्र होकर….यह सुन्दर प्रयोग वहीं कर सकता है] जो कविता का गहन अनुभव करने की सामथ्र्य रखता हो।
रेख्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो गालिब।
कहते हैं अगले जमाने में कोई मीर भी था।
आचार्य पाठक की सजगता द्रष्टव्य है:-
उर्दूकविताया इह गालिब नासि त्वमेय गुरुरेक:।
विगते काले कश्चिन्मीरोड़्प्यासीदिति प्राहु:।।
गालिब के शेर में अगले जमाने का अनुवाद विगते काले किया गया है जो कि यथार्थ अनुवाद है। यदि अनुवादक केवल शब्द पर दृष्टिपात करता तो अग्रिमे काले कहता जबकि पाठक की दृष्टि शब्द और अर्थ पर समान रूप से है। अत: वे केवल शब्दों का अनुवाद नहीं कर रहे थे वरन् शब्दों में निहित अर्थ तथा अर्थों में निहित अनुभूतियों को भी उन्होंने सम्प्रेषित करने का श्लाघनीय उपक्रम किया है।
ग़ालिब की कविता में एक ही शब्द जब दो भिन्न-भिन्न प्रसंगों में प्रयुक्त होता है तो आचार्य पाठक उसका अनुवाद भी उन सन्दर्भों के अनुरूप ही करते हैं:
वह सितमगर मेरे मरने प भी राजी न हुआ।
तू दोस्त किसी का भी सितमगर न हुआ था।।
इन दो स्थानों पर सितमगर शब्द का प्रयोग है, परन्तु आचार्य पाठक की सावधानी अनुवाद करने के इच्छुक कवियों को प्रेरणा देती है।
मृत्यावपि में नाभूत् सहमत इत आततायी स:।
कस्यापि न्वं निर्दय मित्रमभूर्नैव हन्त जगतीह।।
दोनों स्थानों पर आततायी तथा निर्दय ये दो भिन्न अनुवाद किए गए, जो कि कवि के सावचेतता को दर्शाते हैं।आचार्य जगन्नाथ पाठक ने अनुवाद की सीमा का रेखांकन करते हुए कहा कि कहां तो $गालिब का काव्य और कहॉं मैं मंदबुद्धि। जैसे पर्वत को लांघने का इच्छुक कोई पंगु उपहास का पात्र बनता है, उसी प्रकार मैं भी उपहसनीयता को प्राप्त हो सकता हूं। उन्होंने अनुवाद की गम्भीरता को अनुभव करते हुए यह भी कहा कि यदि $गालिब की कविता की अल्प सुगन्ध का भी अवतरण अनुवाद में प्राप्त हो जाए तो मैं स्वयं को सफल मानूंगा।
मैंने मुक्तत-विद्या को अपनाया और अपनी बात कहने के लिए मधु और मधुशाला के प्रतीकों का आश्रय ग्रहण किया। भावना के स्तर पर सत्य, शिव और सुन्दर के स्पर्श की ललक सदा मुझ में रही है, ऐसा कह सकता हूं। अपने क्षण-बोध को शब्दों में रुपायित करने की विफलता ही मेरी रचना की आत्मा है।