छौकण लगने से स्वर्ण मोहर करीब एक महीने में खत्म हो जाती। वैद्य नंदकिशोर माधोसिंह के लिए स्वर्ण भस्म का मुरब्बा बनाते। शाही रसोवड़े का मासिक खर्च 28 हजार चांदी के रुपए था। कई बार माधोसिंह रात को तीन बजे भोजन करने उठ जाते। ऐसे में रसोवड़ादार सतर्क रहते। महाराजा को कळाकंद बहुत पसंद रहा। उनके नाश्ते में सवा दो सेर कलाकंद और कचोरी हनुमान का रास्ता के हलवाइयों से आती।
कछवाहा वंश में आमेर नरेश मिर्जा राजा जयसिंह प्रथम, पृथ्वीसिंह व जगत सिंह की मृत्यु जहरखुरानी से होने की वजह से राजाओं के खानपान में विशेष सतर्कता बरती जाती। बालाबक्स खवास माधोसिंह के भोजन पर निगरानी रखते। सोने की चौकी पर कलात्मक कढ़ाई के कपड़े से ढके भोजन के थाल के व्यंजनों को सुरक्षा के लिहाज से सबसे पहले चखणा चखता। रसोवड़ा का हाकिम कहता, ‘जीमण आरोगो अन्नदाता’ तब महाराजा जीमण करते। माधोसिंह बाहर जाते तब रसोईदार व चखणे भी साथ जाते।
लवाण निवासी चौथमल चखणा महाराजा के साथ सन् 1902 में इंग्लैण्ड गया था। स्वादिष्ट भोजन बनाने में माहिर राज मेहरों के परिवार मेहरों की नदी पर रहते। तातेडख़ाना यानी जलदाय विभाग का काम भी मेहरा संभालते। रसोवड़े से करीब दो सौ मेहरा जुड़े रहे। मेवाड़ के सनाड्य व पाण्डे ब्राह्मण रसोवड़े में हाकिम रहे। इनके पास फारसी में लिखी खानपान विधि की दुर्लभ पुस्तक भी थी। 1940 तक श्रीनाथ पुरोहित ने रसोवड़े में सेवाएं दी। सवाई जयसिंह के समय की भोजन व्यवस्था पर गिरधारी कवि ने भोजनसार ग्रंथ लिखा। आमेर किले की सीता रसोई में रसोईदारों, हलवाइयों और चखणों पर गुप्तचरों की विशेष नजर रहती थी।