इसके तहत मान्यता तो यह है कि नदी, तालाब, सरोवरों के निकट श्राद्ध विशेषज्ञ पुरोहितों से तर्पण व श्राद्ध कराया जाए। श्राद्ध के पश्चात पुरोहितों को भोजन कराने और द्रव्य दक्षिणा देने का प्रावधान है। लेकिन कोरोना काल और ऊपर से बारिश व बाढ के चलते अगर नदी, सरोवर के पास जाने में दिक्कत हो तो पुरोहित से संपर्क कर उसके कहे अनुसार घर की छत पर या घर के बाहर चबूतरे पर भी श्राद्ध अथवा तिलांजलि दी जा सकती है। ऐसे में बहुतेरे लोगों ने कोरोना के डर से घर पर ही तिलांजलि दी या श्राद्ध कर्म निबटाया।
ज्योतिषविदों के अनुसार इस बार चतुर्दशी तिथि का समापन मंगलवार को सुबह 8.29 बजे हो गया। इसके बाद पूर्णिमा तिथि लग गई। ऐसे में पितृपूजन मध्यान्ह समय (12 बजे) के बाद शुरू हो गया। यहां बता दें कि पितरों का तर्पण अथवा दोपहर में ही करने का विधान है। ज्योतिषियों के मुताबिक इस बार तिथियों में भेद के कारण पितृपक्ष 16 दिनों की बजाय 17 दिन का होगा। 12 साल बाद तिथि परिवर्तन का योग इस बार बना है।
मान्यातों के अनुसार पितृपक्ष के दौरान पितरों का श्राद्ध करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है। वो प्रसन्न होते हैं। कहा तो यह भी जाता है कि पितृपक्ष में यमराज पितरों को अपने स्वजन से मिलने के लिए मुक्त कर देते हैं। इस दौरान अगर पितरों का श्राद्ध न किया जाए तो उनकी आत्मा दुखी व नाराज हो जाती है।
पितृ पक्ष के दौरान दिवंगत पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध किया जाता है। माना जाता है कि यदि पितर नाराज हो जाएं तो व्यक्ति का जीवन भी परेशानियों और तरह-तरह की समस्याओं में पड़ जाता है और खुशहाल जीवन खत्म हो जाता है। साथ ही घर में भी अशांति फैलती है और व्यापार, गृहस्थी में भी हानि होती है। ऐसे में पितरों को तृप्त करना और उनकी आत्मा की शांति के लिए पितृ पक्ष में श्राद्ध करना आवश्यक माना गया है।
श्राद्ध पक्ष में आप अपने माता-पिता के अतिरिक्त दादा (पितामह), परदादा (प्रपितामह), दादी, परदादी, चाचा, ताऊ, भाई-बहन, बहनोई, मौसा-मौसी, नाना (मातामह), नानी (मातामही), मामा-मामी, गुरु, गुरुमाता आदि सभी का तर्पण कर सकते हैं। सर्वप्रथम पूरब दिशा की ओर मुँह करके कुशा का मोटक बनाकर चावल (अक्षत्) से देव तर्पण करना चाहिए। देव तर्पण के समय यज्ञोपवीत सब्य अर्थात् बाएँ कन्धे पर ही होता है। देव-तर्पण के बाद उत्तर दिशा की ओर मुख करके “कण्ठम भूत्वा” जनेऊ गले में माला की तरह करके कुश के साथ जल में जौ डालकर ऋषि-मनुष्य तर्पण करना चाहिए। अन्त में अपसव्य अवस्था (जनेऊ दाहिने कन्धे पर करके) में दक्षिण दिशा की ओर मुख कर अपना बायाँ पैर मोड़कर कुश-मोटक के साथ जल में काला तिल डालकर पितर तर्पण करें।
पुरुष-पक्ष के लिए “तस्मै स्वधा” तथा स्त्रियों के लिए “तस्यै स्वधा” का उच्चारण करना चाहिए। इस प्रकार देव-ऋषि-पितर-तर्पण करने के बाद कुल (परिवार), समाज में भूले-भटके या जिनके वंश में कोई न हो, तो ऐसी आत्मा के लिए भी तर्पण का विधान बताते हुए शास्त्र में उल्लिखित है कि अपने कन्धे पर रखे हुए गमछे के कोने में काला तिल रखकर उसे जल में भिंगोकर अपने बाईं तरफ निचोड़ देना चाहिए। इस प्रक्रिया का मन्त्र इस प्रकार है-“ये के चास्मत्कूले कुले जाता ,अपुत्रा गोत्रिणो मृता। ते तृप्यन्तु मया दत्तम वस्त्र निष्पीडनोदकम।। तत्पश्चात् “भीष्म:शान्तनवो वीर:…..” इस मन्त्र से आदि पितर भीष्म पितामह को जल देना चाहिए।