डेढ़ सदी पुरानी है यह मिठास
हर स्टेट के अपने-अपने सिग्नेचर फूड और स्वीट्स के लिए निर्धारित किए जा चुके जियोग्राफिकल इंडिकेशन की दौड़ में हमारे शहर के दो फेमस स्वीट टेस्ट शुमार हो सकते हैं – खोवे की जलेबी और कुन्दे का पेड़ा। जीआई की पड़ताल करने पर पता चलता है कि यूरोपियन यूनियन लॉ के अंतर्गत १९९२ से यह प्रभाव में आया, जबकि खोवे की जलेबी सन् १८८९ में ही हरप्रसाद बडक़ुल बना चुके थे। सिर्फ यही नहीं बात अगर जबलपुर संभाग की करें तो वर्षों पहले आस-पास के कई क्षेत्रों में कई एेसे फूड प्रोडक्ट बनाए गए हैं जिनकी रेसिपी उनकी अपनी है। अगर भविष्य में जीआई और पेटेन्ट करवाने जैसी बातें आती हैं तो हमारे दो प्रोडक्ट नक्शे में एक अलग पहचान बनाने में कामयाब होंगे।
प्रसिद्धि का प्रयास स्टेशन पर भी
आगरा में मिलने वाले पेठे की तर्ज पर जलेबी का प्रचार-प्रसार भी शुरू किया गया था। बडक़ुल परिवार के चंद्रप्रकाश ने बताया कि खोवे की जलेबी को लगभग एक दशक पहले रेलवे स्टेशन पर बिक्री के लिए रखी जाती थीं। जिसके लिए उनकी शॉप से रोजाना सप्लाई होती थी। कुछ महीनों बाद इसे बंद कर दिया गया है।
८ दिन तक रहती सुरक्षित
हरप्रसाद के बाद मोतीलाल और फिर चंद्रप्रकाश/मनीष प्रकाश मिलकर खोवे की जलेबी का निर्माण कर रहे हैं। इनकी बनाई हुई जलेबी ८ दिन तक खराब नहीं होती है। हालांकि शहर में कई और व्यापारी भी खोवे की जलेबी बना रहे हैं, लेकिन प्योर देसी घी में बनने वाली यह जलेबी बडक़ुल्स की पहचान है।