नेताजी सुभाष चंद्र बोस उस वक्त के कांग्रेस के सबसे बड़े नेता देशबंधु चितरंजन दास की प्रेरणा से कांग्रेस में शामिल हुए। चितरंजन दास को नेताजी अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। 1923 में वो नेताजी को भारतीय युवक कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया, साथ ही बंगाल कांग्रेस का सचिव भी।
1927 में जवाहर लाल नेहरू के साथ नेताजी बोस को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का सचिव चुना गया। 1928 में कांग्रेस के गुवाहाटी अधिवेशन में सुभाष और गांधी के बीच मतभेद के बीज पड़ गए। सुभाष पूर्ण स्वराज से कम किसी भी चीज पर मानने को तैयार नहीं थे जबकि गांधी और कांग्रेस के पुराने नेता ब्रिटिश हुकूमत के तहत ही डोमेनियन स्टेट्स का दर्जा चाहते थे।
भगत सिंह को फांसी, महात्मा गांधी से मतभेद और कांग्रेस से इस्तीफा
23 मार्च 1931 को जब क्रान्तिकारी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी गई तो महात्मा गांधी से उनके मतभेद और ज्यादा बढ़ गए। नेताजी सुभाष चंद्र बोस को ये लगा कि अगर गांधी चाहते तो उनकी फांसी रोकी जा सकती थी। उधर नेताजी का क्रांतिकारी मिजाज महात्मा गांधी को नागवार गुजरने लगा। बावजूद इसके 1938 के हरिपुरा अधिवेशन में सुभाष बोस को कांग्रेस अध्यक्ष चुना गया।
मार्च 1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में गांधीजी द्वारा समर्थित उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैया को 199 मतों से हराकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस एक बार फिर कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए। उसके बाद गांधीजी ने ऐसा विरोध किया कि तकरीबन डेढ़ महीने बाद 30 अप्रैल 1939 को नेताजी ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया और बाद में 3 मई 1939 को फॉरवर्ड ब्लॉक की नींव डाली।
जब वर्ष 1931 में भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव जैसे क्रान्तिकारी नेताओं को अंग्रेज सरकार द्वारा फांसी दी गई थी। फांसी रूकवाने के लिए गांधी तत्कालीन वाइसराय लार्ड इरविन से चार-पांच बार मिले और उन्हें पत्र भी लिखा था। लेकिन उन्होंने गांधी जी की एक न सुनी। लेकिन आज कई लोग आरोप लगाते हैं कि गांधी ने भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी नहीं रोकी। यह कार्य गांधी जी के बस में था भी नहीं, क्योंकि अंग्रेजों की दमनकारी नीति के खिलाफ कांग्रेस के गरम दल के नेता कुर्बान होने के लिए तैयार थे।