प्रो. असहाब अली महाराजगंज के जमुनिया गांव के रहने वाले थे। पढ़ाई-लिखाई के शुरुआती दिनों से ही उनमें संस्कृत के प्रति रुचि बढ़ने लगी। वह खुद बताते थे कि हाई स्कूल में थे तभी वह रामायण, महाभारत, सुखसागर, और विश्रामसागर जैसी किताबें पढ़ चुके थे। हिन्दू माइथॅालॉजी की कहानियां पढ़ते-पढ़ते उनका झुकाव संस्कृत के प्रति हुआ। उन्होंने इण्टर में संस्कृत पढ़ना शुरू किया और इंटरमीडिएट की परीक्षा में संस्कृत में टाॅप किया। आगे संस्कृत से ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन में वेदों पर स्पेशलाइजेशन किया। उन्होंने वैदिक और इस्लामिक मिथकों के तुलनात्मक अध्ययन पर पीएचडी की।
प्रो. असहाब अली ने 1973 से ही अपने शोध कार्य के दौरान छात्रों को पढ़ाना भी शुरू कर दिया। 1977 में उनकी नयिुक्त हो गई और 2011 में रिटायर होने तक वह छात्रों को संस्क्त पढ़ाते रहे। उन्हें इस बात का बड़ा संतोष था और वह इस पर गर्व भी करते थे कि किसी विद्यार्थी ने मुसलमान होने के चलते अच्छा नहीं पढ़ा रहा, ऐसा कभी नहीं कहा। उनका एक मशहूर वाकया है कि एक बार वह आजमगढ़ के शिब्ली कॉलेज में संस्कृत के लिये सेलेक्शन के लिये गए तो वहां किसी ने कह दिया क संस्कृत के लिये सेलेक्शन करना है न कि फारसी के लिये। इस पर उन्होंने दो टूक जवाब दिया था कि, ‘मैं दाढ़ी के साथ संस्कृत वाला ही हूं।’
प्रो. असहाब अली बीएचयू में संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में असिस्टेंट प्रोफेसर डाॅ. फिरोज खान की नियुक्ति को लेकर हुए विवाद पर इस विरोध को गलत बताया था। उनका मानना था क अध्यापक को कक्षा के अंदर जज किया जाना चाहिये, न कि जात धर्म और मजहब के हिसाब से। वो इस बात को बताना नहीं भूलते थे कि डीडीयू में मुसलमान होने की वजह से उन्हें उल्टा प्रोत्साहन मिला। वेदों में विशेषज्ञता पर सवाल उठता तो वह तुरंत कहते कि दाराशिकोह शाहजहां का बेटा था, लेकनि संस्कृत का विद्वान था।