संत रामानुजाचार्य का जन्म दक्षिण भारत के तमिल नाडु प्रान्त में हुआ था। बचपन में उन्होंने कांची जाकर अपने गुरु यादव प्रकाश से वेदों की शिक्षा ली। रामानुजाचार्य आलवार सन्त यमुनाचार्य के प्रधान शिष्य थे। गुरु की इच्छानुसार रामानुज से तीन विशेष काम करने का संकल्प कराया गया था- ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और दिव्य प्रबन्धम् की टीका लिखना। उन्होंने गृहस्थ आश्रम त्याग कर श्रीरंगम् के यदिराज नामक सन्यासी से सन्यास की दीक्षा ली।
विशिष्टाद्वैत वेदान्त के प्रवर्तक रामानुजाचार्य जी की जयंती हर साल बैशाख मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाई जाती है। आदि शंकराचार्य के बाद भारत में जिन महात्मा का सर्वाधिक महत्व या प्रभाव रहा है, वह हैं आचार्य रामानुजाचार्य जी। वे ऐसे वैष्णव सन्त थे जिनका भक्ति परम्परा पर बहुत गहरा प्रभाव रहा। वैष्णव आचार्यों में प्रमुख रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में ही रामानन्द हुए जिनके शिष्य कबीरदास जी एवं और सूरदास जी थे। रामानुजाचार्य ने वेदान्त दर्शन पर आधारित अपना नया दर्शन विशिष्ट अद्वैत वेदान्त लिखा था। रामानुजाचार्य ने वेदान्त के अलावा सातवीं-दसवीं शताब्दी के रहस्यवादी एवं भक्तिमार्गी आलवार सन्तों के भक्ति-दर्शन तथा दक्षिण के पंचरात्र परम्परा को अपने विचारों का आधार बनाया।
रामानुजाचार्य मैसूर के श्रीरंगम् से चलकर शालिग्राम नामक स्थान पर रहने लगे। यहां बारह वर्ष तक वैष्णव धर्म का प्रचार किया। उसके बाद वैष्णव धर्म के प्रचार के लिये पूरे भारतवर्ष का ही भ्रमण किया। 1167 ईसवी सन् में 120 वर्ष की आयु पाकर वे ब्रह्मलीन हुए। उन्होंने यूँ तो कई ग्रन्थों की रचना की किन्तु ब्रह्मसूत्र के भाष्य पर लिखे उनके दो मूल ग्रन्थ सर्वाधिक लोकप्रिय हुए- श्रीभाष्यम् एवं वेदान्त संग्रहम्।
रामानुजाचार्य के अनुसार, भक्ति का अर्थ पूजा-पाठ या कीर्तन-भजन नहीं बल्कि ध्यान करना या ईश्वर की प्रार्थना करना है। सामाजिक परिप्रेक्ष्य से रामानुजाचार्य ने भक्ति को जाति एवं वर्ग से पृथक तथा सभी के लिये सम्भव माना है। वैष्णव भक्ति में चार सम्प्रदाय हुए है, कुमार, श्री, रुद्र और ब्रह्म जिनके प्रवर्त्तक क्रमश निंबार्काचार्य, रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य और माध्वाचार्य हैं।
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