Ganesh Festival : छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में पर्यावरण संरक्षण की दिशा में एक अनूठा प्रयास सामने आया है। निमोरा गांव के मूर्तिकार पीलूराम साहू ने गोबर से गौरी-गणेश की प्रतिमाएं बनाकर कला और पर्यावरण को एक नया आयाम दिया है। इस नवाचार ने न केवल पारंपरिक कला को पुनर्जीवित किया है, बल्कि युवाओं को अपनी सांस्कृतिक धरोहर से जुड़ने के लिए प्रेरित किया है।
पीलूराम साहू ने तीन अनाथ बछड़ों के गोबर से ये अनोखी प्रतिमाएं तैयार की हैं। दुर्गा, सिद्दी और सरस्वती नाम के ये तीन बछड़े उनकी मां के बिना ही पले-बढ़े हैं। बछड़ों की मां उन्हें जन्म देकर कहीं चली गई थी।
इन बछड़ों के गोबर का उपयोग कर उन्होंने 6 फीट ऊंची गौरी और 4 फीट ऊंची गणेश की प्रतिमा बनाई। इन प्रतिमाओं की खासियत यह है कि केवल आंखों और गणेश की दांतों में ही रंग का उपयोग किया गया है, बाकी प्रतिमा पूरी तरह प्राकृतिक है।
गोबर की मूर्तियों का महत्व और पर्यावरण पर असर
पीलूराम साहू का यह प्रयास प्लास्टर ऑफ पेरिस और केमिकलयुक्त रंगों से बनी मूर्तियों के बढ़ते उपयोग के बीच पर्यावरण संरक्षण का एक सशक्त उदाहरण प्रस्तुत करता है।
प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियां विसर्जन के बाद जल स्रोतों को प्रदूषित करती हैं और जलचरों के जीवन के लिए खतरा बनती हैं। इसके विपरीत, गोबर से बनी मूर्तियां विसर्जन के बाद जैविक खाद में परिवर्तित हो जाती हैं, जिससे पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं होता। साहू का यह प्रयास युवाओं को सिखाता है कि कैसे पारंपरिक साधनों से भी आधुनिक चुनौतियों का सामना किया जा सकता है।
परंपरागत कला और धार्मिक आस्था का मेल
गोबर का उपयोग भारतीय संस्कृति में हमेशा से पवित्र माना गया है। ग्रामीण क्षेत्रों में पूजा-पाठ और धार्मिक अनुष्ठानों में गोबर का उपयोग आम है। इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए पीलूराम साहू ने गोबर से गौरी-गणेश की प्रतिमाएं बनाई हैं, जो न केवल पर्यावरण के प्रति जागरूकता फैलाती हैं, बल्कि हमारी धार्मिक आस्थाओं को भी सशक्त करती हैं।
साहू ने बताया कि पिछले वर्ष उन्होंने मिट्टी में गेहूं और चना बोकर भी एक प्रतिमा का निर्माण किया था, जो पर्यावरण के प्रति उनके समर्पण को दर्शाता है।
युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत
आज के समय में युवाओं का पर्यावरण संरक्षण के प्रति योगदान बेहद महत्वपूर्ण है। रायपुर के युवा, जो अपने समाज और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील हैं। गोबर से बनी मूर्तियों के इस नवाचार को अपनाकर पर्यावरण संरक्षण में अहम भूमिका निभा सकते हैं।
उनका यह प्रयास उन्हें अपनी सांस्कृतिक धरोहर से जुड़ने के लिए प्रेरित करता है और यह संदेश देता है कि पारंपरिक साधनों का उपयोग करके भी आधुनिक समस्याओं का हल निकाला जा सकता है।