भागवताचार्य पंडित रजनीश त्रिपाठी के अनुसार पांडवों ने अज्ञातवास के समय भगवान श्रीकृष्ण के निर्देश पर शंकर भगवान की आराधना हेतु भीमसेन द्वार व शंकर की विशाल पिंडी की स्थापना की थी, जिसकी द्रोपदी सहित पांचों पांडवों ने पूजा अर्चना की। मान्यता के अनुसार जो भक्त भगवान भोले नाथ की पूजा करके बाहर नंदी के कान में जो भी मनोकामना मांगता है। वह शीघ्र ही पूरी हो जाती है।
साधना के प्राचीन केंद्रों में शुमार है इटावा का धूमेश्वर महादेव मंदिर, भक्तों की पूरी होती हैं सभी मनोकामनाएं
मंदिर के पुजारी दयाल राम महाराज बताते हैं कि सीढ़ियों की बनावट व मंदिर का शिखर यह बताता है कि यह द्वापर युगीन है। इस तथ्य पर कई विद्वान भी एक मत हैं। मुगलकाल में जब व्यापार नदियों के माध्यम से होता था। तब भरेह कस्बा उत्तर भारत का प्रमुख व्यापार केंद्र था। उस समय गुजरात व राजस्थान के व्यापारी अपना माल चंबल नदी के माध्यम से तथा आगरा, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा के व्यापारी यमुना नदी के माध्यम से अपना माल इलाहाबाद, बिहार व कलकत्ता भेजते थे, जहां से विदेश तक माल जाता था। उन दिनों यमुना चंबल के संगम पर विशाल भंवरें पड़ती थीं, जिसमें नाव फंसने पर नाव नदी में ही डूब जाती थी। मंदिर निर्माण के पीछे किंवदंती है कि राजस्थान के एक व्यापारी मदनलाल की नाव यहां सैकड़ों साल पहले यमुना के भंवर में फंस गयी थी। सामने भारेश्वर महादेव का मंदिर है जिस कारण व्यापारी ने महादेव से प्रार्थना की यदि उसकी जान बच जाये तो सारा धन मंदिर में लगा देगा। देखते ही देखते व्यापारी की नाव किनारे आ गयी और इस तरह व्यापारी ने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया तब से लेकर आज तक मंदिर में निर्माण नहीं कराया गया है।
मंदिर के नजदीक बह रही चंबल में डाल्फिन पायी जाती है जिसे देखने के लिए कभी कभार विदेशी सैलानी मंदिर में आते हैं। यह प्राचीन मंदिर उपेक्षा का शिकार है। न तो प्रशासन और न ही जनप्रतिनिधियों ने इसके पुनरोद्धार पर नजर दौड़ाई। यदि मंदिर स्थल को विकसित कर दिया जाये तो यह मंदिर देश के प्रमुख मंदिरों में अपना नाम करायेगा, साथ ही पर्यटन का केंद्र भी भरेह बन सकेगा। पर्यटन के लिहाज से यह मंदिर खासा महत्वपूर्ण है, लेकिन इस ओर कोई कोशिश प्रशासनिक स्तर पर नहीं की गयी।