1- भये प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी ।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी ।।
भावार्थ- दीनों पर दया करने वाले, कौशल्या जी के हितकारी कृपालु प्रभु प्रगट हुए । मुनियों के मनों को हरने वाले उनके अद्भुत रुप का विचार करके माता हर्ष से भर गयी ।
2- लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी ।
भूषन वनमाला नयन बिसाला सोभासिन्धु खरारी ।।
भावार्थ- नेत्रों को आनंद देने वाल मेघ के समान श्याम शरीर था, चारों भुजाओं में अपने आयुध धारण किये हुए थे, दिव्य आभूषण और वरमाला पहने थे, बड़े-बड़े नेत्र थे । इस प्रकार शोभा के समुन्द्र तथा खर राक्षस को मारने वाले भगवान प्रगट हुए ।
3- कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता ।
माया गुन ग्यानातीत अमाना वेद पुरान भनंता ।।
भावार्थ- दोनों हाथ जोड़कर माता कौशल्या कहने लगी- हे अनन्त ! मैं किस प्रकार तुम्हारी स्तुति करुँ । वेद और पुराण तुमको माया, गुण और ज्ञान से परे बताते हैं ।
4- करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता ।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयौ प्रकट श्रीकंता ।।
भावार्थ- श्रुतियां और संत जन दया और सुख का समुन्द्र, सब गुणों का धाम कहकर जिनका गान करते हैं, वही भक्तों पर प्रेम करने वाले लक्ष्मीपति भगवान मेरे कल्याण के लिये प्रगट हुए हैं ।
5- ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै ।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै ।।
भावार्थ- वेद कहते हैं तुम्हारे प्रत्येक रोम में माया के रचे हुए अनेकों ब्रह्मण्डों के समूह भरे हैं । वे तुम मेरे गर्भ में रहे- इस हंसी कि बात के सुनने पर धीर विवेकी पुरुषों की बुद्धि स्थिर नहीं रहती विचलित हो जाती है ।
6- उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै ।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ।।
भावार्थ- जब माता को ज्ञान उत्पन्न हुआ, तब प्रभु मुस्कराये । वे बहुत प्रकार के चरित्र करना चाहते हैं । अतः उन्होंने पूर्वजन्म सुन्दर कथा कह कर माता को समझाया, जिससे उन्हें पुत्र का वात्सल्य प्रेम प्राप्त हो, भगवान के प्रति पुत्र भाव हो जाये ।।
7- माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा ।
कीजे सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा ।।
भावार्थ- माता की बुद्धि बदल गयी तब वह फिर बोली- हे तात ! यह रुप छोड़ कर अत्यन्त प्रिय बाललीला करो, मेरे लिए यह सुख परम अनुपम होगा ।
8- सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होई बालक सुरभूपा ।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा ।।
भावार्थ- माता का वचन सुनकर देवताओं के स्वामी सुजान भगवान ने बालक रूप होकर रोना शुरु कर दिया । मानसकार गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं- जो इस चरित्र का गान करते हैं, वे श्रीहरि का पद पाते हैं और फिर संसार रूपी कूप में नहीं गिरते हैं ।
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