सुमित्रा थीं, जिन्होंने युगों पहले त्याग डाले थे कभी अधिकार अपने। जिन्होंने भरे थे बच्चों में अपने भाइयों के प्रति समर्पण के ही सारे गुण! थी उनकी आंख में आशा की पतली जोत, कि उनके कुल का संकट दूर हो जाता तो, जीवन धन्य होता।
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वहीं पर कैकई थीं। इनके भाग्य में अब अश्रु थे, अपमान था और थे तिरस्कृत दिन कि जो कटते नहीं थे। उन निरीह आंखों में भी था विश्वास, कि उनका राम उनसे रुष्ट तो हो ही नहीं सकता।
उन्हीं के संग निज गृह त्याग कर दौड़े चले थे लोग, जो अपने राम को उनकी अयोध्या सौंपने की जिद में थे। राम जी का नाम उनके मुख पे था। राम उनकी आंख में थे, हृदय में थे, धमनियों में रक्तबन कर दौड़ते से राम, कि सारी अयोध्या भाव में डूबी हुई थी। वे संसार के सबसे अनूठे लोग थे जी, थी वह संसार की सबसे बड़ी तीर्थयात्रा…
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उन्हीं के मध्य गुमसुम सिर झुकाए चल रही थी वह, कि जिसका प्रेम था इस यात्रा के पार! परिवार की खातिर समय से जूझती सी उर्मिला और धर्म की खातिर ही वन- वन भटकता सा प्रेम उसका… सिर उठाती थीं तो बस इस आस में कि देख लेंगे प्रेम को, भय झुका देता था सिर कि प्रेम को यदि प्रेम की याद आ गई, तो धर्म की डोरी कहीं न छूट जाए हाथ से… उर्मिला कब चाहती थीं कि लखन घर लौट आएं? उर्मिला बस चाहती थीं धर्म, पति का अमर होए… कीर्ति उनकी धवल होए… स्वयं की चिंता कहां थी उर्मिला को? उसे तो बस याद थे तो लक्ष्मण थे और था तो कुलवधू का धर्म अपना… राम के युग में खड़ी वह मूक देवी ही हमारी उर्मिला थीं।
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एक संदेशा भरत ने भेज डाला था कि मिथिला! धर्म पथ पर चल रहे हैं, आ सको तो संग आओ! और वह मिथिला थी भाई, राम खातिर दौड़ निकली। राह में जब भरत से राजा जनक की भेंट हो गई, रो पड़े विदेह ने छाती लगाकर कहा कि हे संत! गर्व है मुझको कि मेरे पुत्र हो तुम! तुम युगों की तपस्या की प्राप्ति हो, साधुता के ध्वज हो तुम, तुम अमर रघुवंश का सम्मान हो! राम वापस लौट आएं या न आएं, तुम सफल हो, तुम अमर हो…
– क्रमश: