होलिका दहन धुलेंडी की पूर्व संध्या पर पूर्णिमा तिथि में प्रदोष काल में किया जाता है। लेकिन होलिका दहन के समय भद्रा नहीं होनी चाहिए। शास्त्रों के अनुसार भद्रा रहित, प्रदोष व्यापिनी पूर्णिमा तिथि, होलिका दहन के लिए उत्तम होती है। यदि ऐसा योग नहीं बन रहा है तो भद्रा समाप्त होने पर होलिका दहन किया जाता है और अगले दिन चैत्र कृष्ण प्रतिपदा में रंग खेला जाता है।
आचार्य अंजना गुप्ता के अनुसार किसी कारण भद्रा मध्य रात्रि तक हो तो ऐसी परिस्थिति में भद्रा पूंछ के दौरान होलिका दहन करने का विधान है। शास्त्रों के अनुसार भद्रा मुख में होली दहन से न केवल दहन करने वाले का अहित होता है बल्कि यह पूरे गांव, शहर और देशवासियों के लिए भी कष्ट लेकर आता है। आचार्य गुप्ता के अनुसार किसी कारण यह स्थिति भी नहीं बन रही है तो प्रदोष काल के बाद होलिका दहन करना चाहिए। वहीं यदि भद्रा पूंछ प्रदोष से पहले और मध्य रात्रि के बाद हो तो उसे होलिका दहन के लिए नहीं लिया जा सकता क्योंकि होलिका दहन का मुहूर्त सूर्यास्त और मध्य रात्रि के बीच ही निर्धारित किया जाता है।
ज्योतिषाचार्य अंजना गुप्ता के अनुसार होली दहन आर्य परंपरा में सामूहिक यज्ञ है। इसीलिए पूजा पाठ के बाद होली जलाने के बाद इसमें अक्षत, सीजन का अन्न डालते हैं और परिक्रमा करते हैं। मान्यता है कि इससे वातावरण शुद्ध होता है, क्योंकि मौसम में बदलाव (हेमंत, बसंत ऋतु का संधिकाल) के कारण रोग का कारण बनने वाले जो जीवाणु वातावरण में पैदा हो जाते हैं, वो होली की आग से नष्ट हो जाते हैं। होली नए अन्न वाले समय का भी प्रतीक है। इसलिए होलिका दहन रूपी यज्ञ में यज्ञ परंपरा का पालन करते हुए शुद्ध सामग्री, तिल, मुंग, जड़ी बूटी आदि जरूर डालनी चाहिए।
इसके अलावा भारत में खेती से तैयार हुए अन्न को सबसे पहले पितरों को अर्पित करने की परंपरा है। इस मौसम में चना, मटर, अरहर, गेहूं और जौ आदि अन्न पक कर घरों में आते हैं। इसको होलिका जलाकर अग्नि के माध्यम से सूक्ष्म रूप में पितरों को भेजा जाता है।
भारत के कई हिस्सों में नववधुओं को होलिका दहन की जगह से दूर रखा जाता है। यहां विवाह के बाद नववधू को होली के पहले त्योहार पर सास के साथ रहना अपशकुन माना जाता है। इसके पीछे मान्यता यह है कि होलिका (दहन) मृत संवत्सर का प्रतीक है। अतः नवविवाहिता को मृत को जलते हुए देखना अशुभ है।
5. होलिका की अग्नि में नया अन्न पकाना
6. रात में गीत गाना, नृत्य करना
7. प्रतिपदा के दिन धूलि वंदन और धुलेंडी मनाना (पलाश के फूलों में रोगाणु मारने का गुण होता है और इसके रंग एक दूसरे को लगाने से चर्म रोग दूर होता है)
8. बच्चों द्वारा काष्ठ की तलवार से आपस में खेलना
9. काम पूजा और चंदन मिश्रित आम का बौर ग्रहण करना