डबरा से 27 किलोमीटर और भितरवार से करीब 12 किलोमीटर दूर शिव और पार्वती नदी के संगम स्थल पर बने धूमेश्वर महादेव मंदिर के बारे में बताया गया है कि इस मंदिर का निर्माण एक ही रात में किया गया। ओरछा नरेश वीर सिंह ने इस मंदिर का निर्माण एक ही रात में कराया था। प्राचीन एवं चमत्कारिक पिंडी का दर्शन मात्र करने से ही लोगों की मान्यता पूरी होती है। जिले का सबसे प्राचीन एवं ऐतिहासिक मंदिर है। मंदिर की नक्काशी को देख मंदिर के वास्तु कला में मुगल शासन काल की छाप भी देखने को मिलती है।
क्यों जाना जाता है धूमेश्वर के नाम से
धूमेश्वर मंदिर के चारों ओर कलकल करता झरना मंदिर को और मनमोहक बनाता है। लोग वहां पिकनिक मनाने के लिए पहुंचते है। इतिहासकारों के मुताबिक सिंध नदी का पानी काफी ऊपर से झरने के रूप में नीचे गिरता है, जिससे पानी के नीचे गिरने से धुआं सा उठता है। इसलिए इस मंदिर को धूमेश्वर महादेव मंदिर के नाम से जाना जाता है।
भोर की पहली किरण के साथ जल चढ़ा मिलता है
मंदिर के आगे का भाग मुगलकालीन शैली में नजर आता है। साथ ही मंदिर के जिस हिस्से में भगवान शिव की पिंडी निकली है उसके ठीक पीछे की दिशा से सूर्यउदय होता है और सूर्य की पहली किरण भी पिंडी पर पड़ती है। साथ ही शिवलिंग पर रोजाना ही सुबह के समय जल भी चढ़ा मिलता है।
सिंधिया राजवंश ने कराया था जीर्णोद्वार
मंदिर के महंत अनिरुद्ध महाराज बताते हैं कि यह मंदिर पहले नागवंशीय शासकों द्वारा बनाया गया था। यह मंदिर नरबलि के लिए प्रसिद्ध था। बताते हैं कि मुगल शासकों ने अपने शासनकाल में मंदिर को नष्ट कर दिया था। बाद में ओरछा नरेश वीर सिंह (Raja Veer Singh Bundela Of Orchha) ने एक ही रात में मंदिर का निर्माण कराया। मंदिर का जीर्णोद्धार सन 1936 में ग्वालियर नरेश जीवाजी राव सिंधिया के कार्यकाल में किया गया। श्रावण मास में मेला लगता है।