लोहे को किसानों द्वारा सम्मान देने से जुड़ी है परंपरा
बुंदेलखंड की संस्कृति के जानकारों के मुताबिक कील ठुकवाना दीपावली पर लोहे को सम्मान देना है। लोहे से कृषि यंत्रों का निर्माण होता है। दिवाली के बाद रबी की फसल की बुवाई शुरू होती है, जिसमें ये यंत्र काम आते हैं। कील ठुकवाने की ये परंपरा अब गांवों में भी यदा-कदा ही देखने को मिलती है। वहीं, दीपावली की पूजा के लिए दीवार पर सुराती बनाने की परंपरा भी अब बीते कल की बात होती जा रही है। नई पीढ़ी इसे बनाना भी नहीं जानती है। ये केवल पुरानी पीढ़ी तक सिमट कर रह गई है। दरअसल गांवों में जलसंकट और वेरोजगारी की समस्या के कारण तेजी से बुंदेलखंड के गांवों पलायन बढ़ा है। इस कारण गांवों में लोग रहते ही नहीं है। त्योहारों के समय आते भी हैं तो वे अपनी परंपराएं भूल बैठते हैं।
स्वास्तिकों को जोडकऱ बनाई जाती है सुराती
बुंदेली लोक कलाविद् मालती श्रीवास्तव ने बताया कि सुराती स्वास्तिकों को जोडकऱ बनाई जाती है। ज्यामिति आकार में दो आकृति बनाई जाती हैं, जिनमें 16 घर की लक्ष्मी की आकृति होती है, जो महिला के सोलह श्रृंगार दर्शाती है। नौ घर की भगवान विष्णु की आकृति नवग्रह का प्रतीक होती है। सुराती के साथ गणेश, गाय, बछड़ा व धन के प्रतीक सात घड़ों के चित्र भी बनाए जाने की भी परंपरा है, लेकिन अब ये कम ही नजर आती है।
हाथ से बने लक्ष्मी-गणेश के चित्र की होती थी पूजा
दीपावली पर बुंदेलखंड के गांवों में हाथ से बने लक्ष्मी-गणेश के चित्र या फिर हाथ की बनी मिट्टी की मूर्तियों की पूजा का भी विशेष महत्व है। जिन्हें बुंदेली लोक भाषा में पना कहा जाता है। यह चितेरी कला का हिस्सा है। कई घरों में आज भी परंपरागत रूप से इन चित्रों के माध्यम से लक्ष्मी पूजा की जाती है। लेकिन समय के साथ लोग इस परंपरा को भी भूल गए। कलाविद् बद्री चौबे का कहना है कि आधुनिक सजावटी सामान और पोस्टर, तस्वीर व प्लास्टिक अथवा पीओपी से बनी प्रतिमाएं ही लोगों के घरों में दीपावली पर दिखाई देते हैं। परंपरागत लोक कला अब भुलाई जा रही है।