कई सदाबहार गीत रचने वाले संगीतकार N Dutta की बायोपिक की तैयारी
स्वरों और वाद्यों के संयोजन पर जबरदस्त पकड़
राजकुमार और श्यामा की ‘पंचायत’ (1958) बतौर संगीतकार इकबाल कुरैशी की पहली फिल्म थी। इसमें लता मंगेशकर और गीता दत्त की आवाज वाला ‘ता थैया करते आना’ ने अपने जमाने में काफी धूम मचाई। कुरैशी बाकायदा शास्त्रीय संगीत की तालीम लेकर फिल्मों में आए थे। स्वरों और वाद्यों के संयोजन पर उनकी जबरदस्त पकड़ थी। आशा भौसले और मुबारक बेगम की आवाज वाले ‘हमें दम दइके सौतन घर जाना’ (ये दिल किसको दूं) में संयोजन की यह खूबियां छन-छनकर महसूस होती हैं। व्यापक रेंज वाले इस संगीतकार ने मुख्तलिफ मूड और रंगों वाले कमाल के गीत रचे। मोहम्मद रफी की आवाज में ‘मैं अपने आप से घबरा गया हूं’ (बिंदिया) या मुकेश की आवाज में ‘मुझे रात-दिन ये ख्याल है’ सुनिए, तो लगेगा कि उदासी में इंसान इसी तरह की धुनों से गुजरता है। यह उदासी साये की तरह उम्रभर इकबाल कुरैशी के साथ रही। उनके हिस्से में बी और सी ग्रेड की फिल्में ज्यादा आईं। इनमें से कई फिल्मों के नाम तक किसी को याद नहीं हैं। इनके गीत आज भी सुने जा रहे हैं।
साजिद ने अपना नाम बदला
साधना की पहली फिल्म में तैयार किए 10 गाने
ब्रिटिश फिल्म ‘जेन स्टेप्स आउट’ से प्रेरित आर.के. नैयर की ‘लव इन शिमला’ (यह साधना की पहली फिल्म थी) में इकबाल कुरैशी की धुनों वाले 10 गीत थे। फिल्म की कामयाबी में इन गीतों का बड़ा योगदान रहा। खासकर ‘दिल थाम चले हम आज किधर’, ‘हुस्नवाले वफा नहीं करते’, ‘किया है दिलरुबा प्यार भी कभी’, और ‘दर पे आए हैं’ अपने समय में खूब चले। बाद में चलने को तो दूसरी फिल्मों के ‘इक बात पूछता हूं गर तुम बुरा न मानो’, ‘फिर आने लगा याद वही प्यार का आलम’, ‘जाते-जाते इक नजर भर देख लो’, ‘मेरे जहां में तुम प्यार लेके आए’ आदि भी चले। इकबाल कुरैशी के कॅरियर में फिर भी रफ्तार पैदा नहीं हुई। सत्तर के दशक के मध्य तक आते-आते फिल्में उन्हें उनके हाल पर छोड़कर आगे बढ़ गईं। फिल्मों से दूर होने के बाद गुमनामी का आलम यह था कि नए जमाने के लोगों को उन्हें बताना पड़ता था कि वह कभी फिल्मों में संगीत दिया करते थे।