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क्या और क्यों होता है सेंसर बोर्ड?
भारत के संविधान में सभी को मौलिक अधिकार दिया गया है और यही चीज फिल्मों पर भी लागू होती है, क्योंकि सिनेमा को जिंदगी का चेहरा कहा जाता है और ये मास मीडिया का एक व्यापक माध्यम होता है, जिसके जरिए लोग कहानियों से जुड़ते हैं, देश-विदेश के इतिहास और कल्चर के साथ-साथ लोगों के विचारों, कल्पनाओं को जान पाते हैं। इससे लोगों के इस बीच संचार बनता है। ऐसे में सिनेमा को लेकर कुछ सावधानियां भी बरतनी जरूरी होती है। जैसे फिल्म में क्या दिखाया जाए और क्या नहीं इसका फैसला लेने के लिए एक संस्था बनाई गई है, जिसको सीबीएफसी या सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (Censor Board Of Film Certification) कहा जाता है, जिसके आप सभी सेंसर बोर्ड के नाम से जानते हैं।
सेंसर बोर्ड का क्या होता है काम?
सेंट्रल बोर्ड का काम इस बात का ध्यान रखना होता है कि दर्शकों के सामने दिखाई जाने वाली फिल्म में क्या खामी है, कौनसे सीन्स है या फिल्म के संवादों में किसी तरह की खामी तो नहीं है। ऐसा संदेश जो लोगों तक न पहुंचे जिससे धार्मिक भावनाओं को भड़कवा मिले, देश में हंगामा या शांति भंग करने का काम न करे या ऐसे किसी दृश्य न दिखाया जाए जिससे कोई विचलित हो। हालांकि, आज कल फिल्मों में हर तरह से सीन्स और सवादों को खुल कर दिखाया जाता है, लेकिन एक दौर था जब इन सभी चीजों पर सेंसर बोर्ड कैची चलाने का काम किया करता था। जानकारी के लिए बता दें कि सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन एक वैधानिक संस्था है, जो सूचना प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत आती है। इसके अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति भी केंद्र सरकार के द्वारा की जाती है।
फिल्म सर्टिफिकेशन का समय?
अगर निर्माता को अपनी फिल्म के लिए सर्टिफिकेट चाहिए तो उसको इसके तहत आने वाली सभी प्रक्रिया का पालन करना होता है, जिसके तहत सबसे पहले आवेदन करना होता है, जिसकी जांच में कम से कम एक हफ्ता लगता है। इसके बाद फिल्म को जांच समिति के पास भेजा जाता है, जहां 15 दिनों का समय लगता है और फिर फिल्म को सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष के पास भेजा जाता है। फिल्म को देखने और इसकी जांच करने में कम से कम 10 दिनों का समय लगता है, जिसके बाद फिल्म के निर्माताओं को फिल्म में काट-छांट के आदेश दिए जाते हैं। इस प्रक्रिया में भी कम से कम एक महीने से ज्यादा का समय लगता है, जिसके बाद फिल्म 68 दिनों के लिए सिनेमाघरों में रिलीज की जाती है। हालांकि, कई बार ये सभी काम कम समय में भी निपटा लिए जाते हैं।
कितने तरह के मिलते हैं सर्टिफिकेट?
सबसे पहले ये जान लें कि सेंसर बोर्ड की ओर से फिल्मों को 4 सर्टिफिकेट दिए जाते हैं, जिसमें सबसे पहले ‘यू’ (U) दिया जाता है। इसका मतलब होता है कि इस फिल्म को हर कोई देख सकता है। इसके अलावा दिया जाता है ‘ए’ (A)। इसका मतलब होता है कि ये फिल्में केवल वयस्कों के लिए है। वहीं जब किसी फिल्म को ये दोनों एक साथ मिलते हैं यानी यू/ए (U/A) तो इसका मतलब होता है इस फिल्म को 12 साल से छोटे बच्चों के साथ माता-पिता का होना जरूरी है। वहीं ‘एस’ (AS) में फिल्में कुछ ख़ास वर्ग के लोगों को दिखाने की अनुमति नहीं मिलती। इस तरह से सेंसर बोल्ड सर्टिफिकेट देने की पूरी प्रक्रिया पर काम करता है।
कहां स्थित है सेंसर बोर्ड?
बात दें कि मुंबई के व्हाइट हाउस नाम की इमारत में सालों से सेंसर बोर्ड का ऑफ़िस है, जो देखने में तो एक आम सरकारी ऑफ़िस की तरह ही लगता है, लेकिन यही वो जगह है जहां बड़े-बड़े फिल्म मेकर्स भी अपनी फिल्मों को सर्टिफिकेट दिलाने के लिए चक्कर काटते हैं। इसके अलावा तिरुवनंतपुरम, हैदराबाद, कटक, कोलकाता, चेन्नई, बैंगलोर और गुवाहाटी में भी सेंसर बोर्ड के ऑफिस मौजूद हैं।