खप्पर से होती है पूजा
तरावली स्थित मां हरसिद्धि के प्रति लोगों की अगाध श्रद्धा है। यहां माता के धड़ की पूजा होती है, क्योंकि मां के चरण काशी में है और शीश उज्जैन में। इससे जितना महत्व काशी और उज्जैन का है उतना ही महत्व इस तरावली मंदिर का भी है। यहां आज भी मां के दरबार में आरती खप्पर से की जाती है।
उल्टे फेरों से बनती है बात
तरावली स्थित मां हरसिद्धि धाम में वैसे तो सामान्य रूप से सीधी परिक्रमा ही की जाती है। लेकिन कुछ ऐसे श्रद्धालु जो मां से खास मनोकामना के लिए आते हैं, वे उलटी परिक्रमा कर अर्जी लगा जाते हैं। मनोकामना पूरी होने के बाद वे भी सीधी परिक्रमा कर माता को धन्यवाद देने जरूर आते हैं।
कई दंपतियों की भरी गोद
मान्यता है कि जिन भक्तों को कोई भी संतान नहीं होती है। वे महिलाएं मंदिर के पीछे नदी में स्नान करने के बाद मां की आराधना करें। ऐसा करने से उनकी मनोकामना पूरी हो जाती है और उनके घर भी किलकारियों से गूंज उठते हैं।
राजा विक्रमादित्य लाए थे मूर्ति
तरावली के महंत मोहन गिरी बताते हैं कि वर्षों पूर्व जब राजा विक्रमादित्य उज्जैन के शासक हुआ करते थे। उस समय विक्रमादित्य काशी गए थे। यहां पर उन्होंनें मां की आराधना कर उन्हें उज्जैन चलने के लिए तैयार किया था। इस पर मां ने कहा था कि एक तो वह उनके चरणों को यहां पर छोड़कर चलेंगी। इसके अलावा जहां सवेरा हो जाएगा। वह वहीं विराजमान हो जाएंगी। इसी दौरान जब वह काशी से चले तो तरावली स्थित जंगल में सुबह हो गई। इससे मां शर्त के अनुसार तरावली में ही विराजमान हो गईं। इसके बाद विक्रमादित्य ने लंबे समय तक तरावली में मां की आराधना की। फिर से जब मां प्रसन्न हुई तो वह केवल शीश को साथ चलने पर तैयार हुई। इससे मां के चरण काशी में है, धड़ तरावली में है और शीश उज्जैन में है। उस समय विक्रमादित्य को स्नान करने के लिए जल की आवश्यकता थी। तब मां ने अपने हाथ से जलधारा दी थी। इससे वाह्य नदी का उद्गम हुआ। वह भी तरावली के गांव से ही हुआ है और उसी समय से नदी का नाम वाह्य नदी रखा गया है।
यह भी है रोचक
मान्यता है कि दो हजार वर्ष पूर्व काशी नरेश गुजरात की पावागढ़ माता के दर्शन करने गए थे। वे अपने साथ मां दुर्गा की एक मूर्ति लेकर आए और मूर्ति की स्थापना की और सेवा करने लगे। उनकी सेवा से प्रसन्न होकर देवी मां काशी नरेश को प्रतिदिन सवा मन सोना देती थीं। जिसे वो जनता में बांट दिया करते थे।
तो काशी तक पहुंची बात
सोना बांटने की यह बात उज्जैन तक फैली, तो वहां की जनता काशी के लिए पलायन करने लगी। उस समय उज्जैन के राजा विक्रमादित्य थे। जनता के पलायन से चिंतित विक्रमादित्य बेताल के साथ काशी पहुंचे। वहां बेताल की मदद से काशी नरेश को गहरी निद्रा में लीन कर स्वयं मां की पूजा करने लगे। तब माता ने प्रसन्न होकर उन्हें भी सवा मन सोना दिया।
विक्रमादित्य ने 12 वर्ष की तपस्या
विक्रमादित्य ने वह सोना काशी नरेश को लौटाने की पेशकश की। लेकिन काशी नरेश ने विक्रमादित्य को पहचान लिया और कहा कि तुम क्या चाहते हो। तब विक्रमादित्य ने मां को अपने साथ ले जाने का अनुरोध किया। काशी नरेश के न मानने पर विक्रमादित्य ने 12 वर्ष तक वहीं रहकर तपस्या की। मां के प्रसन्न होने पर उन्होंने दो वरदान मांगे, पहला वह अस्त्र, जिससे मृत व्यक्ति फिर से जीवित हो जाए और दूसरा अपने साथ उज्जैन चलने का आग्रह।
तब मां चलीं साथ और कही ये बात
विक्रमादित्य ने मां से वरदान में चलने की बात कही, तब माता ने कहा कि वे साथ चलेंगी, लेकिन उन्होंने शर्त रख दी कि जहां तारे छिप जाएंगे, वे वहीं रुक जाएंगी। लेकिन उज्जैन पहुंचने सेे पहले तारे अस्त हो गए। इस तरह जहां तारे अस्त हुए मां वहीं पर ठहर गईं। वह स्थान तरावली के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
दोबारा की तपस्या तो मां ने चढ़ा दी अपनी बलि
तब विक्रमादित्य ने दोबारा 12 वर्ष तक कड़ी तपस्या की और अपनी बलि मां को चढ़ा दी। लेकिन, मां ने विक्रमादित्य को जीवित कर दिया। यही क्रम तीन बार चला और राजा विक्रमादित्य जिद पर अड़े रहे। ऐसे में तब चौथी बार मां ने अपनी बलि चढ़ाकर सिर विक्रमादित्य को दे दिया और कहा कि इसे उज्जैन में स्थापित करो। तभी से मां के तीनों अंश यानी चरण काशी में अन्नपूर्णा के रूप में, धड़ तरावली में और सिर उज्जैन में हरसिद्धी माता के रूप में पूजे जाते हैं।