भोपाल। मध्यप्रदेश को लेकर इस खुलासे ने स्वास्थ्य विभाग की नींद उड़ा दी है। देशभर में आत्महत्या, इंडस्ट्रियल हादसों के बाद सबसे ज्यादा मानसिक बीमार लोगों की संख्या में भी मध्यप्रदेश नंबर एक पर है।
आप भी जानें नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की ओर से जारी रिपोर्ट के ये फैक्ट
* रिपोर्ट के मुताबिक 2015 में अकेले मध्यप्रदेश में मानसिक रूप से बीमार 1,227 लोगों ने मौत को गले लगाया। आत्महत्या के इस आंकड़े ने प्रदेश को टॉप में ला खड़ा किया है।
* दूसरे नंबर पर महाराष्ट्र और तीसरे नंबर पर तमिनाडु का नाम है। यहां 990 और 914 मामले ऐसे सामने आए जिनमें आत्महत्या करने वाले मानसिक रूप से बीमार थे।
* एनसीआरबी की ये रिपोर्ट बताती है कि मध्यप्रदेश में 2014 के मुकाबले मानसिक रोगियों की मौत का यह आंकड़ा 10,20 या 50 या 100 फीसदी नहीं बल्कि 128 फीसदी ज्यादा है। 2014 में यह आंकड़ा केवल 538 था।
* हैरानी की बात यह है कि मानसिक रोगियों की बढ़ती संख्या के बीच प्रदेश में केवल 50 मनोचिकित्सक और मनोरोग विशेषज्ञ ही हैं। जबकि प्रदेश में किसी न किसी मानसिक बीमारी से जूझने वाले लोगों की संख्या 40 लाख से ज्यादा है। इनमें तनाव और डिप्रेशन के मरीजों की संख्या बहुत ज्यादा है।
* नेशनल मेंटल हेल्द सर्वे के मुताबिक प्रदेश में एक लाख मानसिक रोगियों पर 0.05 मनोरोग चिकित्सक ही हैं। सर्वे के मुताबिक निजी चिकित्सकों, मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं देने के लिए राज्य और जिला स्तर पर सरकारी मेडिकल अधिकारियों की संख्या काफी कम है। यह 0.1 प्रति लाख जनसंख्या पर है।
* नियमानुसार एक लाख मानसिक रोगियों के लिए एक मनोचिकित्सक होना चाहिए।
* वहीं दो लाख मानसिक रोगियों के बीच 3 मनोचिकित्सक होने चाहिएं।
* नियमानुसार प्रति एक लाख रोगियों पर मनोरोग चिकित्सक के अलावा दो मनोरोग सोशल वर्कर्स होने चाहिएं। एक मनोरोग विशेषज्ञ नर्स इनके लिए कम से कम 10 बेड की व्यवस्था होनी चाहिए।
एमपी मेंटल हेल्द अॅथॉरिटी के विशेषज्ञों के मुताबिक मानसिक रोगियों की मौत के बढ़ते आंकड़ों का कारण मानसिक रोगियों को प्रोपर तरीके से इलाज न मिल पाना है। यही कारण है कि लगातार इलाज के बावजूद उनका तनाव गहरे अवसाद यानी डिप्रेशन की अवस्था में आ जाता है और वे मौत को गले लगा लेते हैं।
* 70 फीसदी मनोरोगी जिन्होंने मौत को गले लगाया इनमें वे लोग शामिल हैं, जिन्होंने सामाजिक प्रतिष्ठा के कारण अपना इलाज ही नहीं करवाया।
* इनमें वे लोग भी शामिल हैं, जिन्होंने इलाज तो शुरू किया, लेकिन मनोरोग चिकित्सक को दिखाने से समाज के लोग उन्हें पागल समझेंगे, इस सोच के कारण उन्होंने दोबारा डॉक्टर को दिखाया ही नहीं।
* वहीं कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि बेरोजगारी, नशे की लत, एग्जाम की टेंशन ये ऐसे कारक हैं, जो लोगों को डिप्रेशन का शिकार बनाते हैं। डिप्रेशन का सही समय पर इलाज शुरू नहीं होने से आत्महत्या जैसे परिणाम सामने आते हैं। इसलिए ये विशेषज्ञ मानते हैं कि जागरुकता और इन कारकों को दूर करने से ही ऐसे मामलों पर लगाम कसी जा सकती है।
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