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बालाघाट

स्वयं के जीवन में छाया अंधेरा, लेकिन बच्चों के भविष्य को प्रदान कर रहे शिक्षा की रोशन

बेमिशाल शिक्षक
तीन कक्षाओं को पढ़ा रहा नेत्रहीन शिक्षक
आंखो से दिव्यांगता पर कर रहे कुशल शिक्षण कार्य
भरवेली के शिक्षक रमेश राहंगडाले से प्रभावित है साथी शिक्षक और विद्यार्थी

बालाघाटSep 14, 2024 / 10:11 pm

mukesh yadav

बेमिशाल शिक्षक

बेमिशाल शिक्षक

बालाघाट। यह नेत्रहीन शिक्षक है रमेश कुमार राहंगडाले। जिले के भरवेली माध्यमिक विद्यालय में तीन कक्षाओं में यह पढ़ाते हंै। शिक्षक रमेश राहंगडाले की आंखों में रोशनी नहीं है, लेकिन फिर भी वे अपनी शिक्षा से सैकड़ों बच्चों की जिंदगी को रोशन कर रहे हंै।
कहते हंै कि इंसान अगर चाह ले तो पत्थर को भी पिघलाकर मोम बना सकता है। इंसान के अंदर अगर जज्बा है तो वह हर मुश्किल को आसान कर सकता है। जिंदगी में असंभव नाम की कोई चीज नही होती है। यह साकार कर दिखाया है भरवेली शासकीय माध्यमिक शाला के शिक्षक रमेश कुमार राहंगडाले ने।
आंखों से दिव्यांगता के बाद भी उनके कुशल शिक्षण कार्य से ना केवल साथी शिक्षक बल्कि स्कूली विद्यार्थी भी प्रभावित है। शिक्षक रमेश राहंगडाले, शिक्षकों के लिए बड़ी मिसाल है। समाज में ऐसे जज्बा और जुनून वाले शिक्षक बहुत कम देखने को मिलते हैं। जहां कई शिक्षक पढ़ाई में अरूचि दिखाते है, वहां शिक्षक रमेश राहंगडाले प्रतिदिन स्कूल आकर शाला की 6 से लेकर 8 वीं तक की कक्षाओ में हिन्दी और संस्कृत विषय को पढ़ाते हंै।
खुद अंधेरे में है लेकिन वह विद्यार्थियों के भविष्य में उजाला भर रहे हैं। दिव्यांगता के आधार पर सहायक शिक्षक पद पर भर्ती हुए रमेश राहंगडाले को स्कूल लाना और ले जाने में उनकी पत्नी, मदद करती है। इसके बाद स्कूल में सहयोगी शिक्षक और विद्यार्थी उन्हें कक्षा तक लाते हैं, जहां वह बच्चों को बड़ी कुशलता से पढ़ाते हंै।
कक्षा के छात्र बताते हंै कि एक छात्रा किताब को पढकऱ बताती है और उसके बाद सर उन्हें उसके बारे में समझाते हैं। जिससे उन्हें अच्छे से समझ में आता है। साथी महिला शिक्षक सुनंदा सिक्का बताती है कि सहायक शिक्षक रमेश राहंगडाले की शैक्षणिक अध्यापन काफी अच्छा है और वह बच्चों को अच्छे ढंग से ना केवल पढ़ाते बल्कि समझाते भी है। इनकी शब्दावली काफी अच्छी है, जो वर्तमान में 6 से 8 वीं तक की कक्षाओ में पढ़ा रहे हैं।
1989 में पहली पदस्थापना
नेत्रहीन सहायक शिक्षक रमेश कुमार बताते हंै कि उनकी पहली पदस्थापना 1989 में प्राथमिक शाला गुडरू में हुई थी। आंखो की दिव्यांगता के कारण उनकी भर्ती हुई, उस समय उन्हें थोड़ा बहुत दिखता था। लेकिन कुछ साल बाद उन्हें दिखना बिलकुल बंद हो गया। नवंबर 2008 में उनकी पदस्थापना शासकीय माध्यमिक शाला भरवेली में हुई। इसके बाद से वे यहां विद्यार्थियों को पढ़ा रहे हंै। उन्होंने कहा कि काफी इलाज के बाद भी उनकी नेत्रहीनता ठीक नहीं हुई। पूरी जानकारी मैने विभाग को दे दी है। उन्होंने कहा कि कार्य के दौरान उन्हें सहयोगी शिक्षको के साथ ही विद्यार्थियों का भी अध्ययन में अच्छा सहयोग मिलता है। बस डर यह रहता है कि उनकी नेत्रहीन का कोई बच्चा फायदा उठाकर कक्षा से ना चले जाए। हालांकि अब तक ऐसा कभी नहीं हुआ है।

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