353 साल पहले आज के दिन औरंगजेब की जेल से ‘गायब’ हो गए थे छत्रपति शिवाजी, पढ़िए रोमांचक जानकारी
-शिवाजी चाहते थे कि औरंगजेब का वध आगरा किले में कर दिया जाए
-17 अगस्त, 1666 को शिवाजी योजनाबद्ध ढंग से जेल फरार हो गए
-धनबल और बुद्धिबल के सहारा लिया, सम्भाजी को मथुरा में रखा
आगरा। यह घटना 353 साल पहले की है। तब मुगल शासक औरंगजेब (Aurangbez) का राज था। आगरा किले (Agra forte) में बैठकर वह शासन चल रहा था। औरंगजेब ने छत्रपति शिवाजी (Chhatrapati Shivaji) को मिलने के लिए बुलाया। औरंगजेब ने शिवाजी और उनके पुत्र को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। शिवाजी ने औरंगजेब की धूर्तता का जवाब दिया। वे 17 अगस्त, 1666 को औरंगजेब को चकमा देकर भाग निकले। औरंगजेब हाथ मलता रह गया। इस बात को आज 353 साल हो गए हैं। आइए जानते हैं कि संक्षेप में पूरी घटना।
मिर्जा राजा जयसिंह के आग्रह पर शिवाजी ने आगरा में औरंगजेब से मिलने का निश्चय कर लिया। उनकी योजना थी कि औरंगजेब का वध उसके दरबार में ही कर दें, जिससे सारे देश में फैला मुस्लिम आतंक मिट जाये। अतः अपने पुत्र सम्भाजी और 350 विश्वस्त सैनिकों के साथ वे आगरा चल दिये।
पर औरंगजेब तो जन्मजात धूर्त था। उसने दरबार में शिवाजी का अपमान किया और पिता-पुत्र दोनों को पकड़कर जेल में डाल दिया। अब वह इन दोनों को यहीं समाप्त करने की योजना बनाने लगा। शिवाजी समझ गये कि अधिक दिन तक यहाँ रहना खतरे से खाली नहीं है। आगरा तक के मार्ग में उनके विश्वस्त लोग तथा समर्थ स्वामी रामदास द्वारा स्थापित अखाड़े विद्यमान थे। इसी आधार पर उन्होंने योजना बनायी।
कुछ ही दिन में यह सूचना फैल गयी कि शिवाजी बहुत बीमार हैं। उन्हें कोई ऐसा रोग हुआ है कि दिन-प्रतिदिन वजन कम हो रहा है। उनके साथ आये हुए वैद्य ही नहीं, आगरा नगर के वैद्य भी निराश हो गये हैं। औरंगजेब यह जानकर बहुत खुश हुआ। उसे लगा कि यह काँटा तो स्वयं ही निकला जा रहा है; पर उधर तो कुछ और तैयारियाँ हो रही थीं।
शिवाजी ने खबर भिजवायी कि वे अन्त समय में कुछ दान-पुण्य करना चाहते हैं। औरंगजेब को भला क्या आपत्ति हो सकती थी ? हर दिन मिठाइयों से भरे 20-30 टोकरे शिवाजी के कमरे तक आते। शिवाजी उन्हें हाथ से स्पर्श कर देते। जाते समय जेल के द्वार पर एक-एक टोकरे की तलाशी होती और फिर उन्हें गरीबों और भिखारियों में बँटवा दिया जाता।
कई दिन ऐसे ही बीत गये। 17 अगस्त, 1666 फरारी की तिथि निश्चित की गयी थी। दो दिन पूर्व ही व्यवस्था के लिए कुछ खास साथी बाहर चले गये। वह दिन आया। आज दो टोकरों में शिवाजी और सम्भाजी बैठे। शिवाजी की हीरे की अँगूठी पहनकर हिरोजी फर्जन्द चादर ओढ़कर बिस्तर पर लेट गया। नाटक में कमी न रह जाये, इसलिए शिवाजी का अति विश्वस्त सेवक मदारी मेहतर उनके पाँव दबाने लगा। कहारों ने टोकरे उठाये और द्वार पर पहुँच गये।
इतने दिन से यह सब चलने के कारण पहरेदार लापरवाह हो गये थे। उन्होंने एक-दो टोकरों में झाँककर देखा, फिर सबको जाने दिया। मिठाई वाली टोकरियाँ गरीब बस्तियों में पहुँचा दी गयीं; पर शेष दोनों नगर के बाहर। वहाँ शिवाजी के साथी घोड़े लेकर तैयार थे। रात में ही सब सुरक्षित मथुरा पहुँच गये।
काफी समय बीतने पर बिस्तर पर लम्बाई में तकिये लगाकर उस पर चादर ढक दी गयी। अब हिरोजी और मदारी भी दवा लाने बाहर निकल गये। रात भर जबरदस्त पहरा चलता रहा। सुबह जब यह भेद खुला, तो सबके होश उड़ गये। चारों ओर घुड़सवार दौड़ाये गये; पर अब तो पंछी उड़ चुका था।
शिवाजी ने सम्भाजी को मथुरा में ही कृष्णाजी त्रिमल के पास छोड़ दिया और स्वयं साधु वेष में पुणे की ओर चल दिये। मार्ग में अनेक बार वे संकट में फँसे; पर कहीं धनबल और कहीं बुद्धिबल से वे बच निकले। 20 नवम्बर, 1666 को एक साधु ने जीजामाता के चरणों में जब माथा टेका, तो माता की आँखें भर आयीं। वे शिवाजी ही थे।
प्रस्तुतिः महावीर प्रसाद सिंघल, आगरा
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