यूएन ट्रिब्यूनल में वर्षों तक वकील रहे ताम्बादो का उस वक्त पूरा ध्यान 1994 के रवांडा दंगों पर था। मई 2018 में उन्होंने बांग्लादेश में रोहिंग्या शरणार्थी शिविर का दौरा किया। तब शरणार्थियों पर हुए जुल्म सुनकर उन्हें रवांडा में सरकार के अत्याचारों की याद आ गई। जब 100 दिन चले नरसंहार में आठ लाख लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया और करीब ढाई लाख महिलाओं को यौन उत्पीडऩ से सहना पड़ा। अब जबकि गांबिया ने हेग के अंतरराष्ट्रीय कोर्ट में मुकदमा दायर किया है तो म्यांमार पर कानूनी दबाव बढऩे की उम्मीद की जा सकती है। अफ्रीकी देश ने न्यायालय में कहा कि वह म्यांमार में रोहिंग्या के खिलाफ अत्याचार और नरसंहार रोकने के लिए आदेश जारी करे। गांबिया रोहिंग्या की दुर्दशा को अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय में अभियोजन के एक वर्ष बाद सुर्खियों में लाया है, जो सामान्यत: युद्ध अपराधों के मामलों को देखता है।
न्यायालय ने जातीय संघर्ष से निपटने के लिए जांच शुरू कर दी है, लेकिन ये प्रयास कारगर होते नजर नहीं आते, क्योंकि सदस्य देश नहीं होने के कारण म्यांमार उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। फिर इस तरह के कानूनी मुकदमें वर्षों तक चलते हैं और लाखों डॉलर खर्च होते हैं, जो लगभग 100 करोड़ की जीडीपी वाले देश के लिए काफी मुश्किल है। हालांकि करीब 23 लाख की आबादी वाले मुस्लिम राष्ट्र को गांबिया को 57 देशों के इस्लामिक सहयोग संगठन का भी समर्थन हासिल है, जो खुद को मुस्लिम दुनिया की आवाज कहता है।