इस युद्ध के दौरान एक तरफ कालादेव के लोग राम दल के रूप में आगे बढ़ते हुए इस ध्वजा को छूने की कोशिश करते हैं तो वहीं, दूसरी तरफ रावण दल के लोग उन पर गोफन से पत्थरों की बरसात करते है, लेकिन, आश्चर्य की बात ये है कि, गोफन से निकलने वाले ये पत्थर रामादल के किसी सदस्य को लगते नहीं है। इससे भी बड़ी बात ये है कि, अगर कोई व्यक्ति कालादेव का निवासी न हो और रामादल में शामिल हो जाऐ, तो उसे गोफन से फैंके हुए पत्थर लग जाते हैं, लेकिन कालादेव गांव के किसी भी व्यक्ति को इन फैंके जाने वाले पत्थरों से कोई नुकसान नहीं होता। स्थानीय लोगों की मानें तो फैंके जाने वाले ये पत्थर मैदान में अपनी दिशा बदलकर कहीं और निकल जाते हैं।
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दूर दूर से ये चमत्कार देखने आते हैं लोग
हालांकि, इस बात की कहीं से भी पुष्टि नहीं होती कि, कालादेव मेंं दशहरे के दिन मनाई जाने वाली परंपरा कब से चली आ रही है। कालादेव गांव विदिशा से करीब 100 किमी दूर स्थित है। बैरसिया, महानीम चौराहा, लटेरी और आनंदपुर होते हुए कालादेव पहुंचा जा सकता है। यहां दशहरे पर अनूठा आयोजन किया जाता है। मैदान में रावण की विशालकाय प्रतिमा स्थित है, जिसे पहले गांव के लोगों द्वारा सजाया जाता है। इस आयोजन को देखने के लिए सिर्फ लटेरी या विदिशा ही नहीं बल्कि, गुना, भोपाल, राजगढ़, ग्वालियर, इंदौर समेंत उत्तर प्रदेश और राजस्थान तक से लोग यहां पहुंचते हैं।