वाराणसी. लोकनायक जयप्रकाश नारायण जिनकी आज 115वीं जयंती है का जीवन बेहद संघर्षपूर्ण रहा। शिक्षा के लिए गांव (सिताब दियारा) ही नहीं बल्कि देश भी छोड़ा। पटना कॉलेज में पढाई के दौरान मौलाना अब्दुल कलाम आजाद से प्रभावित हुए तो कॉलेज छोड़ कांग्रेस द्वारा संचालित विद्यापीठ में पढ़ने गए, लेकिन तभी चौरी चौरा कांड ने विद्यापीठ को बंद करा दिया तो आगे की पढ़ाई के लिए वह अमेरिका गए। वहां अध्ययन के लिए काफी संघर्ष किया। फूड पैकेजिंग से लेकर जूठे बर्दन तक धोए। फिर जवाहरलाल नेहरू की पहल पर 1929 में कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की। साल भर बाद यानी 1930 में जब कांग्रेस के अधिकांश नेता गिरफ्तार कर लिए गए तब जेपी ही थे जिन्होंने भूमिगत होकर कांग्रेस वर्किंग कमेटी का कामकाज जारी रखा। इसी दौरान उन्हें भी गिरफ्तार किया गया और वह 1933 तक जेल में रहे। एक दफा जेल से भाग कर नेपाल गए और गोरिल्ला फौज बनाई जिसका नाम दिया ‘आजाद दस्ता’। वह अपने आजाद भारत अभियान में जुटे रहे लेकिन तभी ब्रितानी हुकूमत ने उन्हें फिर गिरफ्तार किया और वह 12 अप्रैल 1946 को रिहा हुए। इस गिरफ्तारी के दौरान उन्हें लाहौर किले में एकांतवास की सजा काटनी पड़ी। बहुत सी यातनाएं झेलीं। आजादी के बाद 1952 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने मंत्रिमंडल में शामिल होने का न्योता भेजा पर जेपी नेहरू को 14 सूत्रीय प्रोग्राम दिया जिस पर माकूल जवाब न मिलने पर वह मंत्रिमंडल में शामिल नहीं हुए। दरअसल जयप्रकाश नारायण भूख, गरीबी तथा अशिक्षा से मुक्ति को असली आजादी मानते थे।
जेपी के अनुयायियों में से एक अशोक मिश्र ने पत्रिका संग बातचीत में बताया कि गुजरात से शुरू हुआ आंदोलन जब पटना पहुंचा और गांधी मैदान में सभा हुई तभी लालू प्रसाद यादव ने सबसे पहले जयप्रकाश नारायण को लोकनायक की उपाधि से नवाजा था। मिश्र बताते हैं कि हम लोग उन्हें उत्तर प्रदेश लाना चाहते थे। उन्हें लखनऊ लाने की योजना सफल भी हो गई थी लेकिन तभी तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा ने एक चाल चली, जेपी को कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बता दिया,जिससे उनके सारे अनुयायी स्तब्ध रह गए और वह योजना धरी की धरी रह गई। फिर 1975 में आपात काल लागू होने के साथ ही उन्हें पटना में गिरफ्तार कर लिया गया। ऐसे में हम लोगों से उनकी मुलाकात भी तभी संभव हो पाई जब आपात काल खत्म हुआ। समाजवादी विचारक व पूर्व पत्रकार मिश्र कहते हैं कि अगर जयप्रकाश नारायण की चलती तो 1977 में मोरारजी देसाई नहीं जगजीवन राम देश के प्रधानमंत्री होते। लेकिन कुछ लोगों ने उन्हें गुमराह कर मोरारजी भाई को पीएम बनवा दिया। वह बताते हैं कि जयप्रकाश जी के जीवन काल में एक वक्त ऐसा भी आया जब सरकारों और कुछ लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया कि वह अब किसी काम के नहीं रहे। तब हम लोगों ने बड़ी मुश्किल से उनके कदमकुआं स्थित आवास पर मुलाकात का मौका हासिल किया। वह भी पिछले दरवाजे से। तब इलाहाबाद में महाकुंभ लगा था, हम लोगों ने जेपी को इस बात के लिए राजी कर लिया कि वह कुंभ मेले में आए ताकि लोगों का यह भ्रम टूट जाए कि वह असक्त हो गए हैं और किसी काम के लायक नहीं रहे। लेकिन वह योजना भी उनके कुछ अत्यंत करीबी लोगों ने साजिशन ध्वस्त कर दी। अंततः आठ अक्टूबर को पटना में ही उन्होंने अंतिम सांस ली।
जयप्रकाश का बिगुल बजा
तो जाग उठी तरुणाई
है जवानों द्वार पर
क्रांति तिलक लगाने को आई ।।