आचार्य जी महात्मा गांधी के विचारों से काफी निकट रहे। दोनों के बाद अच्छा संबंध भी रहा। लेकिन वह कभी ‘गांधीवादी’ नहीं बन सके। पुराने समाजवादी, वरिष्ठ पत्रकार योगेंद्र नारायण बताते हैं कि आचार्य जी खुद को मार्क्सवादी बताते रहे। उनका मार्क्सवाद किसी पार्टीलाइन पर नहीं चलता था। वे भारतीय परिस्थितियों के मुताबिक उसके समन्वयात्मक स्वरूप के हिमायती थे। सर्वहारा के नाम पर किसी व्यक्ति या गुट की तानाशाही उन्हें स्वीकार नहीं थी।
आजादी के बाद सत्ता की बागडोर संभालने वाले पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भी देश में समाजवादी व्यवस्था लागू करने की कोशिश की। उनके इस प्रयास में एक भारतीय मार्क्सवादी भी सहयोगी रहे। आचार्य जी ने गांधी और नहरू दोनों को नजदीक से जाना और समझा। लेकिन वह गांधी के ग्राम स्वराज की थ्योरी के काफी नजदीक रहे। उन्होंने भारतीय समाजवाद को नई दिशा देने का प्रयास भी किया। कांग्रेस से उनका जुड़ाव काफी नजदीकी रहा पर आत्मिक नहीं हो सका।
आचार्य नरेंद्र देव ने कई किताबें भी लिखी। इमें कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं…
राष्ट्रीयता और समाजवाद, समाजवाद : लक्ष्य तथा साधन, सोशलिस्ट पार्टी और मार्क्सवाद, राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास, युद्ध और भारत, किसानों का सवाल, समाजवाद और राष्ट्रीय क्रांति, समाजवाद, बोधिचर्चा तथा महायान, अभीधर्म कोष
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