आपको बता दें कि, आज से करीब 2300 साल पहले उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के राजकीय काल से ही नगर पूजा की परंपरा चली आ रही है। आज भी विधिवत इस परंपरा का निर्वहन उज्जैन के राजा यानी कलेक्टर द्वारा ही कराया जाता है। यहां नवरात्रि पर महाष्टमी के दिन साल में एक बार जिला प्रशासन द्वारा नगर पूजा कराई जाती है। इस पूजा में लगभग 27 किलोमीटर तक मदिरा की धार लगाई जाती है, जो शहर के कई देवी मंदिरों में जाती है। महापूजा में जिला प्रशासन के साथ कई श्रद्धालु भी पैदल चलते हैं। सुबह से शुरु होने वाली ये यात्रा शाम तक संपन्न होती है। यात्रा उज्जैन के प्रसिद्ध चौबीस खंबा माता मंदिर से शुरु होकर नगर भ्रमण करते हुए ज्योर्तिलिंग महाकालेश्वर पर शिखर ध्वज चढ़ाकर पूर्ण होती है।
इस तरह निकाली जाती है यात्रा
बता दें कि, इस यात्रा की खास बात ये है कि, एक घड़े में मदिरा भरी जाती है, जिस घड़े में नीचे की ओर छेद होता है। इसे छेद वाले घड़े की सहायता से पूरी यात्रा के दौरान सड़क मार्ग और देवी मंदिरों में मदिरा की धार बहाई जाती है। हर बार महापूजा में जिला कलेक्टर के साथ प्रशासनिक अधिकारी, कर्मचारियों के साथ बड़ी संख्या में श्रद्धालु पैदल यात्रा में शामिल होते हैं।
यह भी पढ़ें- झाड़ू का हवाला देकर गृहमंत्री बोले- लोग PM मोदी की बात ऐसे मानते हैं, मानों भगवान की बात हो
सम्राट विक्रमादित्य भी करते थे इन देवियों की आराधना
यहां महालाया और महामाया दो देवियों की प्रतिमाएं द्वार के दोनों किनारों पर स्थापित हैं। सम्राट विक्रमादित्य भी इन देवियों की आराधना करते थे। मंदिर में 12वीं शताब्दी के एक शिलालेख में लिखा था कि अनहीलपट्टन के राजा ने अवंतिका में व्यापार के लिए नागर और चतुर्वेदी व्यापारियों को यहां लाकर बसाया था। यहां नगर रक्षा के लिए चौबीस खंबे हैं। इसलिए इसे चौबीस खंबा दरवाजे के नाम से जाना जाता है। प्राचीन समय में नवरात्र पर्व की अष्टमी पर जागीरदार, इस्तमुरार, जमींदारों द्वारा यहां पूजन किया जाता था। आज भी ये परंपरा जारी है, जिसे कलेक्टर निर्वहन करते हैं। सम्राट विक्रमादित्य इन देवियों की आराधना करते थे। उन्हीं के समय से अष्टमी पर्व पर यहां शासकीय पूजन की परंपरा है।