सुरेंद्र सिंह भदौरिया ने बताया कि भगवान भोलेनाथ को अर्पित होने वाले धतूराए बेलपत्र और फू ल को वर्मी कंपोस्ट में रखकर खाद बनाया जाएगा। उस खाद को मंदिर मैदान में रोपण किए जाने वाले पौधे और पार्क में उपयोग किया जाएगा। इसके साथ ही खेतों में भी उपयोग किया जाएगा। सोमवार से अब तक १५ से २० क्विंटल के लगभग धतुरा, बेलपत्र और फूल सामग्री अर्पित हो गए है।
श्रृद्धालु सुरजपुर निवासी देवेंद्र यादव, पहाड़ी तिलवारन निवासी रामेश्वर यादव और मिनौरा निवासी जुगलबाबू अहिरवार ने बताया कि स्वयं भू भगवान कुण्डेश्वर समूचे क्षेत्र में तेरहवें ज्योतिर्लिंग के रूप में पूजे जाते हैं। स्वयंभू भगवान कुण्डेश्वर की द्वापर युग से पूजा की जा रही है। पौराणिक काल द्वापर युग में दैत्य राजा बाणासुर की पुत्री ऊषा ने यहां भगवान शिव की तपस्या की थी। वर्तमान में भी किवदंती है कि ऊषा आज भी भगवान शिव को जल अर्पित करने आती हैं। इसका जीता.जागता प्रमाण स्वयं प्रतिवर्ष चावल के बराबर बढऩे वाला शिवलिंग है।
बताया गया कि संवत 1204 में यहां पर धंतीबाई नाम की एक महिला पहाड़ी पर रहती थी। पहाड़ी पर बनी ओखली में एक दिन वह धान कूट रही थी। उसी समय ओखली से रक्त निकलना शुरू हुआ तो वह घबरा गई। ओखली को अपनी पीलत की परात से ढक कर वह नीचे आई और लोगों को यह घटना बताई। लोगों ने तत्काल इसकी सूचना तत्कालीन महाराजा राजा मदन वर्मन को दी। राजा ने अपने सिपाहियों के साथ आकर इस स्थल का निरीक्षण किया तो यहां पर शिवलिंग दिखाई दिया। इसके बाद राजा वर्मन ने यहां पर पूरे दरबार की स्थापना कराई।