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सुल्तानपुर

मुरादाबाद के बाद पीतल के बर्तनों का मुख्य बाजार था सुलतानपुर का बंधुआकला, खरीदारों की लगी रहती थी होड़

– देश-दुनिया में पीतल के कारोबार के लिए फेमस था सुलतानपुर का बंधुआकला- सरकारी उपेक्षा से बंदी की कगार पर है पीतल का कारोबार, कारीगर कर रहे पलायन – गायब हो रही बंधुआकला के बर्तनों की खनक, खरीदार भी नदारद

सुल्तानपुरAug 06, 2019 / 03:02 pm

Hariom Dwivedi

Peetal Karobar

मुरादाबाद के बाद पीतल के बर्तनों का मुख्य बाजार था सुलतानपुर का बंधुआकला, खरीदारों की लगी रहती थी होड़

राम सुमिरन मिश्र
पत्रिका एक्सक्लूसिव
सुलतानपुर. मुरादाबाद के बाद सुलतानपुर जिले का बंधुआकला पीतल के कारोबार के लिए देश-दुनिया में फेमस था, लेकिन बदलते दौर और शासन-प्रशासन की उपेक्षा से यह उद्योग आज गुमनामी की कगार पर है। यहां बर्तनों की खनक गायब सी हो गई है और खरीदार भी नदारद हैं। कारोबारी पलायन कर रोजी-रोटी की तलाश में दूसरा ठिकाना खोज रहे हैं। आजादी के बाद से ही सरकारों की उपेक्षा से इस कारोबार को उद्योग का दर्जा नहीं मिल सका। पूंजी के अभाव में इस धंधे से जुड़े जो लोग बाहर नहीं जा सके, आज वह मजदूरी कर किसी तरह से परिवार चलाने को विवश हैं। धंधा खत्म होने लगा तो रोजी रोटी के भी लाले पड़ने लगे। हाथ में हुनर होने के बावजूद इन्हें भरण पोषण के लिए दूसरे जगहों पर पलायन करना पड़ा। अब तक करीब 100 से ज्यादा लोग मध्य प्रदेश, मिर्जापुर, लखनऊ, मुरादाबाद, फैजाबाद समेत अन्य इलाकों में शिफ्ट हो चुके हैं। जो बचे भी हैं उन्होंने दूसरा कारोबार शुरू कर लिया। दूबेपुर ब्लॉक का बंधुआकला कस्बा जिला मुख्यालय से आठ किलोमीटर दूर सुलतानपुर-लखनऊ राष्ट्रीय राजमार्ग 56 पर स्थित है।
नब्बे के दशक में बंधुआ कला का हर घर कारखाने की शक्ल में था। यहां करीब 200 घरों में पीतल, तांबा, कांसा धातु के बटुआ, लोटा, हंडा, परात आदि से लेकर हर छोटे-बड़े और सामान बनते थे। मुरादाबाद, समसाबाद, मिर्जापुर, लखनऊ, बाराबंकी, नेपाल से आए खरीदारों में यहां के बर्तनों को पाने की होड़ लगी रहती थी। स्थानीय दुकानदार भी यहीं के बने बर्तन बेचते थे। अजय कुमार, कुंवर सिंह, मंगल, ईश्वर प्रसाद, गुड्डू, मोनू ऐसे कुछ नाम हैं जो परम्परागत धंधे को लेकर संघर्ष कर रहे हैं। अजय कुमार समय और सरकार दोनों को दोषी मानते हैं। वह कहते हैं कि सरकार ने कभी उनकी तरफ ध्यान ही नहीं दिया। इस समय प्लास्टिक और स्टील के बर्तनों की मांग ज्यादा है, जिस वजह से पीतल, तांबा आदि की मांग कम हो गई। लगन-सहालग में थोड़ा बहुत काम चल जाता है। फिर छह माह उन्हें बैठना ही पड़ता है। उन्होंने बताया कि ऑर्डर पर माल तैयार किया जाता है। कारोबारी ही उन्हें कच्चा माल उपलब्ध कराते हैं। यदि पूंजी होती तो वे खुद के पैसे से कच्चा माल खरीदते। जिससे उन्हें दुगना फायदा होता।
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संघर्ष कर रहे हैं बचे कारोबारी
पीतल के बर्तनों के मुख्य कारोबारी श्रीप्रकाश कहते हैं कि अब पीतल के बर्तनों का चार्म नहीं रहा। बदलते दौर और पसन्द के आगे पीतल के बर्तनों का कारोबार लगभग बन्द सा हो गया है और इसके कारीगर बेरोजगारी से जूझ कर अन्य प्रदेशों को पलायन कर रहे हैं। क्योंकि उनका परिवार भुखमरी का दंश झेल रहा है। अब हम पीतल के बर्तनों का कारोबारी समय की नजाकत भांपकर स्टील के बर्तनों का कारोबार कर रहे हैं।
खोमचे व चाय की गुमटी वाले भी कमाते थे हजारों
श्रीप्रकाश और राजकुमार कहते हैं कि सिर्फ कारोबारी ही नहीं, बल्कि हजारों लोगों इस रोजगार से जुड़े थे। औद्योगिक क्षेत्रों की तरह सुबह शाम यहां मजदूर ही मजदूर दिखाई देते थे। दुकान, खोमचे व चाय की गुमटी चलाने वाले भी हजारों कमाते थे। कूड़ा-कबाड़ बीनने वालों की भी अच्छी खासी आमदनी हो जाती थी, लेकिन अब वर्तमान समय में यह सब इतिहास बन कर रह गया है।
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वैज्ञानिक दृष्टि से तांबे व पीतल के बर्तनों का इस्तेमाल है सेहतमंद
वैज्ञानिक दृष्टि से तांबे, पीतल व कांसे के बर्तनों में खाना-पीना सेहत के लिए फायदेमंद माना जाता है। प्राचीन काल में राजाओं-महाराजाओं के यहां सोने-चांदी के अलावा इन्हीं बर्तनों की भरमार हुआ करती थी, लेकिन अब यह बर्तन रसोई घरों से गायब हो गए हैं।

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