उस समय अमित खरे पश्चिमी सिंहभूम (चाईबासा) के उपायुक्त थे। वर्तमान में वो झारखंड सरकार में अतिरिक्त मुख्य सचिव और विकास आयुक्त के पद पर कार्यरत हैं। खरे पहले ऐसे अधिकारी थे, जिन्होंने पशुपालन विभाग के कोषागार से पैसों के लेन-देन में गड़बड़ी का अंदेशा जताया। ट्रेजरी से होने वाले ट्रांजैक्शन की हर महीने रिपोर्ट भेजने के क्रम में उन्हें पता चला कि लगातार बड़ी रकम के बिल पास हो रहे हैं। इसके बाद उन्होंने चारे की आपूर्ति करने वालों और जिला पशुपालन अफसर के यहां छापा मारने की ठान ली। उन्होंने जांच टीम बनाई और जांच शुरू कर दी जिसमें उन्हें सफलता मिली।
घोटाले का खुलासा करते वक्त एलएससी नाथ शाहदेव पश्चिमी सिंहभूम (चाईबासा) में अतिरिक्त उपायुक्त (प्रशासन) के पद पर कार्यरत थे। वर्तमान में वो सेवानिवृत के बाद गुमला के पालकोट में रहते हैं। गड़बड़ी की आशंका को देखते हुए उन्होंने छापेमारी शुरू की थी। छापों के बाद शाहदेव को पशुपालन विभाग के बिल की जांच सौंपने के साथ ट्रेजरी के अकाउंट से मिलान करने को कहा गया था। इसके बाद फर्जी बिल का भारी संख्या में बरामद हुआ, जिनका इस्तेमाल पैसे निकालने के लिए हुआ था। उनके पास बिलों के मिलान करने और फर्जीवाड़े की जानकारी देने की अहम जिम्मेदारी थी।
90 के दशक में वीएचआर देशमुख पश्चिमी सिंहभूम (चाईबासा) के एसपी थे। अब वहीं पर गृह मंत्रालय के पुलिस अनुसंधान और विकास विभाग में निदेशक (प्रशासन) के पद पर तैनात हैं। वहां के तत्कालीन उपायुक्त अमित खरे ने उनको अपने पास बुलाकर छापेमारी का सुझाव दिया। देशमुख का कहना है कि उन्होंने स्थानीय पुलिस को सतर्क किया और चारे की आपूर्ति करने वालों के प्रतिष्ठानों पर छापे मारे, जहां से फर्जी बिल के अलावा ट्रेजरी अफसरों के स्टैंप और दस्तावेज मिले। ये दस्तावेज चारा आपूर्तिकर्ता, पशुपालन विभाग और ट्रेजरी विभाग के अधिकारियों के बीच मिलीभगत के अहम सुबूत साबित हुए। इस मामले में जो पहली एफआईआर दर्ज हुई वो बाद में चारा घोटाले के नाम से जानी गई। यह उनके लिए सरकारी खजाने से गलत तरीके से पैसों की निकासी रोकने के लिए सामान्य छापे की तरह था। उन्होंने इस मामले में ताबड़तोड़ छापे मारते हुए घोटाले में शामिल अफसरों को सबूत नष्ट करने से रोकने में कामयाबी हासिल की।
4. फिडलिस टोप्पो
फिडलिस टोप्पो घोटाले के समय पश्चिम सिंहभूम जिला में एसडीओ के पद पर कार्यरत थे। सेवानिवृत के बाद उन्हें झारखंड लोकसेवा आयोग का सदस्य नियुक्त किया गया। आज भी आयोग के सदस्य के रूप में वो अपनी सेवाएं दे रहे हैं। उन्होंने छापे मारने की बात को गुप्त रखा गया था। इस बारे में उनके अलावा उपायुक्त अमित खरे के नेतृत्व में काम कर रहे अफसरों को ही पता था। उस समय वो खरे साहब के जूनियर थे। लिहाजा वो उनके आदेश का अक्षरश: पालन करते थे। छापों के वक्त उनके पर किसी प्रकार का दबाव नहीं था। भारी संख्या में फर्जी बिल और अलॉटमेंट ऑर्डर की कॉपी मिलने पर वो दंग रह गए थे। उन्होंने चारा आपूर्तिकर्ता और विभागीय अधिकारियों के घरों से बड़ी मात्रा में नगद कैश जब्त किया। कुछ जगहों पर छापेमारी के दौरान विभागीय दस्तावेज भी उन्हें मिले।
उस समय बीसी झा एग्जिक्युटिव मैजिस्ट्रेट के पद पर तैनात थे। और अब आईएएस रैंक पर सेवानिवृत होने के बाद झारखंड सरकार में जांच अधिकारी और विभागीय कार्यवाही का हिस्सा हैं। बतौर एग्जिक्युटिव मैजिस्ट्रेट उन्होंने छापे मारने वाली टीम को सहयोग दिया और सर्च ऑपरेशन की निगरानी की। शीर्ष जांच अधिकारियों की नजर में उनकी छवि बेहद ईमानदार अधिकारी की थी। किसी नई जगह पर छापेमारी और जब्त करने की कार्रवाई से पहले झा अपनी तरफ से कानूनी औपचारिकताओं को समय रहते ही पूरा कर लेते थे।