- सिवनी. बिनैकी क्षेत्र में स्थित पावर प्लांट से निकलने वाली राख स्थानीय किसानों के स्वास्थ्य और आजीविका पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल रही है। राख से कृषि को नुकसान तो पहुंच ही रहा है साथ ही आसपास के जल स्त्रोत दूषित हो गए हैं। बड़ी बात यह है कि यह समस्या काफी समय से है। स्थानीय लोगों ने इसे लेकर प्रशासन को कई बार ज्ञापन भी सौंपा, लेकिन कार्रवाई नहीं हो रही है। ऐसे में किसान मजदूरी करने के लिए मजबूर हो रहे हैं। दरअसल प्लांट से निकलने वाली राख गोडे नाले में बहाई जा रही है। ऐसे में नाले के आसपास स्थित खेतों में राख फैलती जा रही है। जिससे किसानों को कठिनाई हो रही है और वे खेती नहीं कर पा रहे हैं। किसानों का कहना है कि प्लांट प्रबंधन के लिए गोडे नाला राख का डंप यार्ड बन गया है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2016 में झाबुआ पावर प्लांट शुरु किया गया था। स्थानीय लोगों ने सोचा की यह प्लांट उनके लिए वरदान साबित होगा। काफी संख्या में स्थानीय लोगों को रोजगार मिलगा, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। काफी कम लोगों ही इसमें रोजगार मिल पाया। वहीं प्लांट से समस्याएं ज्यादा हो गई। राख पर्यावरण में जहर घोलने के साथ ही बीमारी दे रही है। टीबी, दमा, त्वचा रोग और कैंसर जैसी बीमारी को फैला रही है। प्लांट के आसपास बरेलाए बिनैकी, गोरखपुर, उमरपानी, बरोदा जैसे लगभग एक दर्जन गांव आते हैं। अगर इन ग्रामीणों की बात करें तो इनकी संख्या हजारों में है जो रोजाना प्लांट से उडऩे वाली राख से परेशान हैं। जबकि शासन के साथ पावर प्लान्ट प्रबंधन अनुबंध करता है कि जहरीली राख को अपने स्टाक डैम में स्टोर किया जाए। जल स्रोत या हवा में इसका प्रदूषण नहीं होना चाहिए।
झाबुआ पावर प्लांट के पर्यावरण विभाग के अनूप श्रीवास्तव बताते हैं कि प्लांट नियमों के अनुसार राख का इस्तेमाल हाईवे निर्माण, सीमेंट उत्पादन, ईंट निर्माण और बंजर भूमि के सुधार के लिए किया जाता है। राख का इस्तेमाल बंजर भूमि में भी किया जा रहा है। उनका कहना है कि राख में मौजूद सोडियम, पोटैशियम और जिंक जैसे कई तत्व फसलों की उत्पादकता बढ़ा सकते हैं। इसलिए इसका इस्तेमाल बंजर भूमि में किया जा रहा है। अनुप श्रीवास्तव का कहना है कि घंसोर विकासखंड के पारा, उमरपानी और राजगढ़ी गांवों के खेतों में राख डालकर उसे उपजाऊ बनाया गया है।
डैम का अतिस्व भी हुआ खत्म
नाला का पानी टैमर नदी में जाकर मिलता है। नाले का पानी का उपयोग ग्रामीण करते थे। इसके अलावा नहाने, मवेशियों को पानी पिलाने के लिए भी उपयोग किया जाता था। वर्ष 1996 में क्षेत्र में डैम भी बनाया गया था, लेकिन राख की वजह से डैम का अस्तित्व भी खत्म हो गया है। लगभग आधा दर्जन गांव के मवेशी इसी डैम का पानी पीते थे। वन्य प्राणी भी क्षेत्र में बहुतायत में हैं। गर्मी के दिनों में वह भी डैम का पानी पीते थे। अब राख का भराव इतना हो गया है कि वहां जाना मुश्किल है।
नाला का पानी टैमर नदी में जाकर मिलता है। नाले का पानी का उपयोग ग्रामीण करते थे। इसके अलावा नहाने, मवेशियों को पानी पिलाने के लिए भी उपयोग किया जाता था। वर्ष 1996 में क्षेत्र में डैम भी बनाया गया था, लेकिन राख की वजह से डैम का अस्तित्व भी खत्म हो गया है। लगभग आधा दर्जन गांव के मवेशी इसी डैम का पानी पीते थे। वन्य प्राणी भी क्षेत्र में बहुतायत में हैं। गर्मी के दिनों में वह भी डैम का पानी पीते थे। अब राख का भराव इतना हो गया है कि वहां जाना मुश्किल है।
कलेक्टर ने भी किया था निरीक्षण