यह एक ऐसा किला है जहां राज परिवार अब भी निवास करता है। मैहर किले का इतिहास रीवा, ओरछा, पन्ना व छतरपुर से जुड़ा है। समय-समय पर विभिन्न युद्धों से होते हुए यह रियासत आगे बढ़ती रही। 1770 में बेनीसिंह को जिम्मेदारी मिली थी। उनकी हत्या 1788 में हो गई थी। उनकी बेटी राजधर ने कई टैंकों व इमारतों का निर्माण कराया था, जिसमें मैहर किला भी था। मैहर के राजा को शासक का दर्जा प्राप्त था। लिहाजा, उन्हें 9 बंदूकों की सलामी का हकदार माना जाता रहा। वर्तमान में इस किले को पर्यटन निगम के होम स्टे योजना के तहत पंजीकृत भी कराया गया है। इसके कई हिस्से जर्जर हैं लेकिन उसके बाद भी अपनी विशेष पहचान रखता है।
रीवा के क्योटी प्रपात के बगल में मनोहर पहाडिय़ों के बीच ये किला स्थापित है। इसका इतिहास रीवा रियासत से जुड़ा हुआ है। रीवा के 17वें शासक महाराज शलिवाहन के दो पुत्र थे। जिनका नाम वीरभद्र व नागमल था। वीरभद्र को देवगद्दी मिली, वहीं नागमल को क्योटी किला की जिम्मेदारी दी गई। यहां अंतिम इलाकेदार लक्ष्मण सिंह हुए। 1857 के स्वतंत्रता समर के योद्धा रणमत सिंह व उनके साथियों ने यहां पनाह ली थी। वर्तमान में पुरातत्व विभाग के अधीन है, जो इसे संरक्षित घोषित कर चुका है। लेकिन, ये किला धीरे-धीरे जर्जर होते जा रहा है। इसे सहेजने की जरूरत है।
विंध्य का इकलौता प्राचीन व्यंकटेश मंदिर सतना शहर में है। यह दक्षिण भारतीय स्थापत्य कला का जीवंत उदाहरण है। मुख्त्यारगंज में इस मंदिर का निर्माण सन 1876 इ. में हुआ। मंदिर रामानुज स्वामी सम्प्रदाय से संबंधित है। इसका निर्माण ठाकुर लाल रणदमन सिंह ने कराया था। वे देवराज नगर के इलाकेदार थे। शिलान्यास रीवा राज्य के महाराज रघुराज सिंह ने किया था। नींव रणदमन सिंह ने रखी थी, परंतु पूर्ण उनकी चौथी पीढ़ी के वंशजों के समय हुआ। निर्माण कार्य पूर्ण होने के बाद रणदमन सिंह के वंशज श्रीनिवास सिंह की पत्नी ने प्रतिमाएं स्थापित कराईं।
रीवा रोड पर तमस नदी के किनारे एक महलनुमा जर्जर भवन ध्यान खींचता है। इसकी स्थानीय पहचान माधवगढ़ किले के रूप में है। यह अपनी बनावट व इतिहास को लेकर आकर्षण का केंद्र रहा है। अब मप्र पर्यटन निगम इसे हैरिटेज होटल में विकसित करने की योजना बनाए हुए हैं। इसे रीवा रियासत के महाराजा विश्वनाथ सिंह जूदेव ने बनवाया था। इसका उपयोग सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था। विद्रोहियों व दुश्मनों से बचाने के लिए इसका निर्माण कराया गया था। यहां सैन्य युद्ध के उपयोग होने वाले हाथी व घोड़े को रखा जाता था। बड़े पैमाने पर सैनिक भी तैनात रहते थे।
जर्जर हो चुका सोहावल किला अनायश ही ध्यान खींचता है। इसकी पहचान 16वीं सदी से है। इतिहास भी समृद्धशाली रहा है। इसकी रियासत करीब 213 वर्गमील क्षेत्र में फैली हुई थी। इसके संस्थापक फतेहसिंह रहे, जो रीवा महाराजा अमर सिंह के दूसरे पुत्र थे। 16वीं सदी में अपने ही पिता के खिलाफ विद्रोह किया था। 1950 में सोहावल स्टेट का रघुराज नगर में विलय हो गया था। इस क्षेत्र का इतिहास अपने आप में काफी समृद्ध है। इस सोहावल को कुछ लोग स्टेट भी कहते हैं। इनके द्वारा बनाया गया किला आज भी मौजूद है। इसको लेकर स्थानीय कहानियां भी मौजूद हैं। लेकिन, इस महती विरासत पर समय के धूल चढ़ रही है। इसको सहेजना भी चुनौती है।
गोविंदगढ़ का किला रीवा रियासत के लिए महत्वपूर्ण रहा है। इसे ग्रीष्मकालीन राजधानी भी माना जाता रहा है। यह किला एक विरासत के रूप में है, जिसे रीवा के महाराज ने बनवाया था। राजा मार्तंड सिंह ने सीधी के जंगल से पकड़े गए सफेद बाघ मोहन को यहां रखा था। इस किले का बड़ा हिस्सा गिर चुका है। लेकिन, एक बार फिर से पर्यटन निगम इसे सहेजने का काम कर रहा है। इसे हैरिटेज होटल के रूप में विकसित किया जा रहा है। इसके अलावा, संग्रहालय में रखे हुए हथियार प्रसिद्ध हिंदी फिल्म अशोका में इस्तेमाल किए गए थे, जिसकी मुख्य भूमिका में शाहरूख खान थे।
नागौद किला अभी अच्छी स्थिति में है। इसके एक हिस्से को पयर्टन निगम में होम स्टे योजना के तहत पंजीकृत भी किया गया है। वहीं कुछ हिस्से में राज परिवार रहता भी है। नागौद किला को परिहार राजपूतों की पहचान के रूप में देखा जाता है। इसके इतिहास में कई उतार-चढ़ाव हैं। परिहार राजपूत मूलरूप से माउंट आबू से आए थे। परिहार राजपूतों ने गहरवार शासकों को बेदखल कर खुद को स्थापित किया था। 18वीं सदी तक मूल राजधानी उचेहरा के नाम से जाना जाता रहा। 1478 राजा भोज ने उचेहरा पर कब्जा किया। उन्होंने उचेहरा को मुख्य शहर बना दिया। 1720 में राजा चैंनसिंह ने नागौद में राजधानी स्थापित कर दी। बाद में परिहार राजाओं का प्रभाव भी खत्म हो गया। नागौद के राजा को भी शासक का दर्जा प्राप्त था, उन्हें 9 बंदूकों की सलामी मिलती थी।