ताजिए का इस्लाम धर्म से नहीं है कोई संबंध, सच्चाई जानकर हो जाएंगे हैरान
कर्बला की इतिहास
इस्लामिक नए साल की दस तारीख को नवासा-ए-रसूल इमाम हुसैन अपने 72 साथियों और परिवार के साथ मजहब-ए-इस्लाम को बचाने, हक और इंसाफ कोे जिंदा रखने के लिए शहीद हो गए थे। लिहाजा, मोहर्रम पर पैगंबर-ए-इस्लाम के नवासे (नाती) हजरत इमाम हुसैन की शहादत की याद ताजा हो जाती है। किसी शायर ने खूब ही कहा है- कत्ले हुसैन असल में मरगे यजीद है, इस्लाम जिंदा होता है हर करबला के बाद। दरअसल, करबला की जंग में हजरत इमाम हुसैन की शहादत हर धर्म के लोगों के लिए मिसाल है। यह जंग बताती है कि जुल्म के आगे कभी नहीं झुकना चाहिए, चाहे इसके लिए सिर ही क्यों न कट जाए, लेकिन सच्चाई के लिए बड़े से बड़े जालिम शासक के सामने भी खड़ा हो जाना चाहिए।
यौम-ए-आशूरा
हालांकि, इमाम हुसैन की शहादत से पहले खुद पैगम्बर मुहम्मद (स) और उनके शिष्य आशूरा के दिन रोजा रखते थे। हदीस की किताब सहीह मुस्लिम की हदीस नंबर 2656 में आशूरा के बारे में जो जिक्र किया गया है, वह इस प्रकार है। हज़रात अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रजि०) ने फरमाया था कि जब रसूलुल्लाह मोहम्मद सल्लल्लहु अलैहिवसल्लम मक्के से मदिने में तशरीफ़ लाए तो यहूदियों को देखा कि आशुरे के दिन (10 मुहर्रम) का रोजा रख्ते हैं। उन्होंने लोगों से पूछा कि क्यों रोजा रखते हो तो यहूदियों ने कहा कि ये वो दिन है, जब अल्लाह तआला ने मूसा (अलैह०) और बनी इसराइल को फ़िरऔन यानी मिस्र के जालिम शासक पर जीत दी थी, इसलिए आज हम रोजेदर हैं, उनकी ताज़ीम के लिए। इसपर नबी-ए-करीम मोहम्मद (स० अलैह०) ने कहा कि हम पैगम्बर मूसा (अलैह०) से तुम से ज्यादा करीब और मुहब्बत करते हैं। फिर मोहम्मद (स० अलैह०) ने मुसलमानों को इस दिन रोजा रखने का हुक्म दिया। वहीं, एक और हदीस में हज़रात अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रजि०) कहते हैं कि जब मुहम्मद (स० अलैह०) ने 10वीं मुहर्रम का रोज़ा रखा और लोगों को हुक्म दिया तो लोगों ने कहा की या रसूलल्लाह (स० अलैह०) ये दिन तो ऐसा है कि इसकी ताज़ीम यहूदी और ईसाई करते हैं, तो मोहम्मद (स० अलैह०) ने फ़रमाया कि जब अगला साल आएगा तो हम 9 का भी रोज़ा रखेंगे। हालांकि, अगला साल आने से पहले ही मुहम्मद (स० अलैह०) की मौत हो गयी। इसलिए मुस्लमान 9 और 10 मुहर्रम दोनों दिन रोज़ा रखते हैं।
सुन्नी मुसलमान नहीं करते हैं मातम
दरअसल, कर्बला के इतिहास को पढ़ने के बाद मालूम होता है की मुहर्रम का महीना कुर्बानी, गमखारी और भाईचारगी का महीना है। क्योंकि हजरत इमाम हुसैन रजि. ने अपनी कुर्बानी देकर पुरी इंसानियत को यह पैगाम दिया है कि अपने हक को माफ करने वाले बनो और दुसरों का हक देने वाले बनो। आज जितनी बुराई जन्म ले रही है, उसकी वजह यह है कि लोगों ने हजरत इमाम हुसैन रजि. के इस पैगाम को भुला दिया और इस दिन के नाम पर उनसे मोहब्बत में नये नये रस्में शुरू की गई। इसका इसलामी इतिहास, कुरआन और हदीस में कहीं भी सबूत नहीं मिलता है। मुहर्रम में इमाम हुसैन के नाम पर ढोल-तासे बजाना, जुलूस निकालना, इमामबाड़ा को सजाना, ताजिया बनाना, यह सारे काम इस्लाम के मुताबिक गुनाह है। इसका ताअल्लुक हजरत इमाम हुसैन की कुर्बानी और पैगाम से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं रखता है। यानी ताजिए का इस्लाम धर्म से कोई सरोकार या संबंध नहीं है। भारतीय उपमहाद्वीय के बाहर दुनिया में कहीं और मुसलमानों में ताजिए का चलन नहीं है। यहीं वजह है कि सुन्नी मुसलमान इमाम हुसैन के बताए रास्ते पर तो चलते हैं, लेकिन मातम नहीं मनाते हैं। हालांकि, भारत में ताजिए की परंपरा सुन्नी मुसलमानों में भी पाई जाती है।