सागर.आज 21 मार्च हैं। आज के ही दिन 21 मार्च 1953 में ओशो बुद्धत्व को उपलब्ध हुए थे। कहा जाता हैं उसी दिन से वे उन लोगों की खोज में है जो उन्हें समझ सकें। और बुद्धत्व को उपलब्ध हो सकें। एक समय जब सागर यूनिवर्सिटी मकरोनिया स्थित बेरिकों में संचालित होती थी, तब ओशो रजनीश यहां पढ़ाई किया करते थे।
वे रात में ध्यान करने पहाडिय़ों पर चले जाते थे। इसी दौरान की एक घटना का जिक्र यहां लगे पत्थर पर अंकित है। जिसमें लिखा है, 12 फरवरी 1956 की रात्रि ओशो इस महुआ वृक्ष के नीचे ध्यान मग्न थे। अचानक उनकी देह चेतना से अलग हो गयी। शरीर धरती पर गिर गया, उन्होंने देखा उनकी चेतना शरीर से अलग है। और चांदी के समान प्रकाशमय तार से जुडी है। इस महान घटना को सतोरी कहा जाता है।
इन्होंने साथ जिए थे वह पल
ओशो रजनीश के सहपाठी रहे सागर निवासी 81 वर्षीय रमेश दत्त मिश्रा ने बताया कि 1955-56 में मैं उनके साथ पढ़ा हूं। मैं हिंदी में था, वो मुझसे कुछ सीनियर थे। वे जब लेक्चर देते थे, तो मुझे भी लेक्चर देने के लिए बुलाते थे। वे छात्रों से मेरा परिचय सहपाठी के रूप में ही कराते थे। उन्होंने मुझे कभी डॉमिनेट नहीं किया। उनमें बोलने का आत्मविश्वास बहुत था।
(ओशो रजनीश के सहपाठी रहे रमेश दत्त मिश्रा)
उनके साथ बिताए लम्हें के बारे में मिश्र जी से पूछा गया तो उनका कहना था कि जब वे जबलपुर में भंवरताल गार्डन में घूमने और व्यायाम करने आते थे, तब भी उनसे मुलाकात हो जाया करती थी। इस दौरान लेक्चर देते समय संचालन मुझसे कराया करते थे।
वेशभूषा से लोग समझते थे बनावटी
पढ़ाई के बारे में उन्होंने बताया कि ओशो अति कुशाग्र बुद्धि के थे। वे घमंडी नहीं थे। वे वेशभूषा बनाते थे, जिससे लोग उन्हें बनावटी कहते थे। लेकिन मैं जानता हूं कि वे बनावटी नहीं थे। जब वे बोलते थे, तो मंत्रमुग्ध कर देते थे, वे सहज थे। ओशो के बारे में श्री मिश्र का कहना था कि वे असाधारण व्यक्तित्व के धनी थे, निरंतर अध्ययनरत रहते थे। ओशो मध्यप्रदेश की अद्भुत देन थे। मनुष्य की साधारण चेतना के धनी।
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